________________ कुन्दकुन्द शतक] 123 ( 12-13 ) जह णाम को वि पुरिसोरायाणं जाणिऊण सद्दहदि / तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण।। एवं हि जीवराया णादव्बो तह य सहोदव्यो / अणुचरिदव्यो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण / / 'यह नृपति है' यह जानकर अर्थार्थिजन श्रद्धा करें / अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें।। यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिए / अति प्रीति से अनुचरण करिये प्रीति से पहिचानिए।। जिस प्रकार कोई धनार्थी पुरुष राजा को जानकर उसका श्रद्धान करता है और उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है; उसी प्रकार मुमुक्षुओं को जीवरूपी राजा को जानना चाहिये, उसका श्रद्धान करना चाहिए एवं उसी का अनुचरण भी करना चाहए, उसी में तन्मय हो जाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि आत्मार्थियों को सर्वप्रथम निज भगवान आत्मा को जानना चाहिए, फिर यह श्रद्धान करना चाहिए कि यह भगवान आत्मा मैं ही हूँ। इसके पश्चात उसी में लीन हो जाना चाहिए, क्योंकि निज भगवान आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान ही निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। ( 14 ) जो इच्छइ हिस्सरिदं संसारमहण्णवाउ रुहाओ / कम्मिधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं / / जो भव्यजन संसार-सागर पार होना चाहते / वे कर्मईंधन-दहन निज शुद्धातमा को ध्यावते / / जो जीव भयंकर संसाररूपी समुद्र से पार होना चाहते हैं, वे जीव कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाले अपने शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं; क्योंकि शुद्धात्मा के ध्यानरूपी अग्नि ही कर्मरूपी ईंधन को जलाने में समर्थ होती है। अतः ममक्ष का एकमात्र परम कर्तव्य निज शुद्धात्मा का ध्यान ही है। 12. समयसार, गाथा 17 . 13. समयसार, गाथा 18 14. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा 26