________________ 122 [ कुन्दकुन्द शतक सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीयो / जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि।। जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो / जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो।। शुद्धात्मा को जानता हुआ अर्थात् शुद्धात्मा का अनुभव करता हुआ जीव शुद्धात्मा को प्राप्त करता है और अशुद्ध आत्मा को जानता हुआ-अनुभवता हुआ जीव अशुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा के शुद्ध स्वभाव में अपनापन स्थापित करनेवाला शुद्धता को प्राप्त करता है और अशुद्ध स्वभाव में अपनापन स्थापित करनेवाला अशुद्ध रहता है। ( 10 ) आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुहिढ् / णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं / / यह आत्म ज्ञानप्रमाण है अर ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है / हैं ज्ञेय लोकालोक इस विधि सर्वगत यह ज्ञान है।। आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान ज्ञेयप्रमाण कहा गया है। ज्ञेय तो सम्पूर्ण लोकालोक है। यही कारण है कि लोकालोकरूपज्ञेय को जानने वाले ज्ञान को भी सर्वगत कहा गया है। यद्यपि आत्मा अपने असंख्य प्रदेशों से बाहर नहीं जाता, तथापि सब को जानने वाला होने से सर्वगत कहा जाता है। ( 11 ) दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्याणि साहुणा णिच्वं / ताण पुण जाण तिण्णवि अप्पाणं चेव णिच्छ्यवो।। चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा / ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा।। साधु पुरुषों को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्-चारित्र का नित्य सेवन करना चाहिए; क्योंकि उन तीनों को निश्चय से एक आत्मा ही जानो। 9. समयसार, गाथा 186 11. समयसार, गाथा 16 10. प्रवचनसार, गाथा 23