________________ कुन्दकुन्द शतक ] 121 अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी / ण वि अत्थि मज्म किंचि वि अण्ण परमाणुमेत्तं पि।। मैं एक दर्शन ज्ञान मय नित 'शुद्ध हूँ रूपी नहीं / ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं।। मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ एवं सदा ही ज्ञान-दर्शनमय अरूपी तत्त्व हूँ। मुझसे भिन्न अन्य समस्त द्रव्य परमाणु मात्र भी मेरे नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि मैं समस्त परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञान-दर्शन स्वरूपी, अरूपी, एक, परमशुद्ध तत्त्व हूँ। अन्य परद्रव्यों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेतनागुणमसदं / जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिविठ्ठसंवणं / / चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है / जानो अलिंगग्रहण इसे यह.अनिर्दिष्ट अशब्द है।। भगवान आत्मा में न रस है,न रूप है, न गंध है औरन शब्द है; अतः यह आत्मा अव्यक्त है, इन्द्रियग्राह्य नहीं है। हे भव्यो ! किसी भी लिंग (चिह्न) से ग्रहणन होने वाले, चेतना पण वाले एवं अनिर्दिष्ट (न कहे जा सकने वाले) संस्थान (आकार) वाले इस भगवान आत्मा को जानो। कह सो धिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु धिप्पदे अप्पा / जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्यो।। जिस भाँति प्रज्ञाछैनी से पर से विभक्त किया इसे / उस भाँति प्रज्ञाछैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे।। प्रश्न-भगवान आत्मा को किस प्रकार ग्रहण किया जाय? उत्तर-भगवान आत्मा का ग्रहण बुद्धिरूपी छैनी से किया जाना चाहिए। जिस प्रकार बुद्धिरूपी छैनी से भगवान आत्मा को परपदार्थों से भिन्न किया है, उसी प्रकार बुद्धिरूपी छैनी से ही भगवान आत्मा को ग्रहण करना चाहिए। 7. समयसार, गाथा 49 6. समयसार, गाथा 38 8. समयसार, गाथा 296