________________ ܘܪܸܐ [कुन्दकुन्द शतक सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारितं हि सतवं देव / चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं।। सम्यक् सुदर्शन ज्ञान तप समभाव सम्यक् आचरण / सब आतमा की अवस्थाएँ आतमा ही है शरण / / सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप-ये चार आराधनाएँ भी आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं; इसलिए मेरे लिए तो एक आत्मा ही शरण है। तात्पर्य यह है कि निश्चय से विचार करें तो एकमात्र निज भगवान आत्मा ही शरण है, क्योंकि आत्मा के आश्रय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होती है। णिग्गंथो जीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मको / णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो हिम्मदो अप्पा।। निर्ग्रन्थ है नीराग है निःशल्य है निर्दोष है / निर्मान-मद यह आतमा निष्काम है निष्क्रोध है।। भगवान आत्मा परिग्रह से रहित है, राग से रहित है, माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यों से रहित है, सर्व दोषों से मुक्त है, काम-क्रोध से रहित है और मद-मान से भी रहित है। णिइंडो णिबंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो / जीरागो णिहोसो जिम्मूढो णिभयो अप्पा।। निर्दण्ड है निर्द्वन्द्व है यह निरालम्बी आतमा / निर्देह है निर्मूढ है निर्भयी निर्मम आतमा।। भगवान आत्मा हिंसादि पापों रूप दण्ड से रहित है, मानसिक द्वन्द्वों से रहित है, गमत्वपरिणाम से रहित है, शरीर से रहित है, आलम्बन से रहित है, राग से रहित है, दोषों से रहित है, मूढ़ता और भय से भी रहित है। 3. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा 105 5. नियमसार, गाथा 43 4. नियमसार, गाथा 44