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________________ कुन्दकुन्द शतक ] . 111 ईसाभावेण पुणो केई जिंदति सुन्दरं मग्गं / तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे।। यदि कोई ईर्ष्याभाव से निन्दा करे जिनमार्ग की / छोड़ो न भक्ती वचन सुन इस वीतरागी मार्ग की।। यदि कोई ईर्ष्याभाव से इस सुन्दर मार्ग की निन्दा करें तो उनके वचनों को सनकर हे भव्यो! इस सन्दर जिनमार्ग में अभक्ति मत करना। इस सच्चे मार्ग में अभक्ति-अश्रद्धा करने का फल अनंत संसार है; अतः किसी के कहने मात्र से इस सुन्दर मार्ग को त्यागना बुद्धिमानी नहीं है। (97 ) मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊणय कुणदिणिव्युदी भत्ती / तेण दु जीवो पावइ असहायगुणं णियप्पाणं / / जो थाप निज को मुक्तिपथ भक्ती निवृत्ती की करें / वे जीव निज असहाय गुण सम्पन्न आतम को वरें।। मोक्षपथ में अपने आत्मा को अच्छी तरह स्थापित करके जो व्यक्ति निवृत्ति-भक्ति करता है, निर्वाण-भक्ति करता है, निज भगवान आत्मा की भक्ति करता है, निज भगवान आत्मा में ही अपनापन स्थापित करता है, उसे ही अपना जानता-मानता है, उसका ही ध्यान करता है; वह निश्चय से असहाय गुणवाले निजात्मा को प्राप्त करता है। ( 98 ) मोक्खंगयपुरिसाणं गणभेदं जाणिऊण तेसि पि / जो कुणदि परमभत्ति ववहारणयेण परिकहियं / / मुक्तिगत नरश्रेष्ठ की भक्ती करें गुणभेद से / वह परमभक्ती कही है जिनसूत्र में व्यवहार से।। मोक्ष में गये हुए पुरुषों के गुणभेद जानकर उनकी परम भक्ति करना व्यवहारनय से भक्ति कहलाती है। मुक्ति को प्राप्त महापुरुषों का-भगवन्तों का गुणानुवाद ही व्यवहार भक्ति है। 96. नियमसार, गाथा 186 98. नियमसार, गाथा 135 97. नियमसार, गाथा 136
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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