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________________ 118 ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम होगी; क्योंकि अध्यात्मविमुखता और शिथिलाचार जितना आज देखने में आ रहा है, उतना कुन्दकुन्द के समय में तो निश्चित ही नहीं था और भी किसी युग में नहीं रहा होगा। आध्यात्मिक जागृति और साधु व श्रावकों के निर्मल आचरण के लिए कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का अध्ययन गहराई से किया जाना उपयोगी ही नहीं, अत्यन्त आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय एवं विधिवत् पठन-पाठन न केवल आत्महित के लिए आवश्यक है, अपितु सामाजिक शान्ति और श्रमण संस्कृति की सुरक्षा के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है; अन्यथा श्रावकों में समागत असदाचार और श्रमणों में समागत शिथिलाचार सामाजिक शान्ति को तो भंग कर ही रहे हैं। श्रमण संस्कृति की दिगम्बर धारा भी छिन्न-भिन्न होती जा रही है। श्रद्धा और चारित्र के इस संकट काल में कुन्दकुन्द के पंच परमागमों में प्रवाहित ज्ञान गंगा में आकण्ठ निमज्जन (डुबकी लगाना) ही परम शरण है। यदि हम जिन-अध्यात्म की ज्योति जलाए रखना चाहते हैं, श्रावकों को सदाचारी बनाये रखना चाहते हैं, संतों को शिथिलाचार से बचाये रखना चाहते हैं तो हमें कुन्दकुन्द को जन-जन तक पहुंचाना ही होगा, उनके साहित्य को जन-जन की वस्तु बनाना ही होगा। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में समागत विषयवस्तु का परिचय तो कराया ही जा चुका है, उनकी भाषा और भावों के साक्षात परिचय के लिए आगामी अध्याय में कुन्दकुन्द के पंच परमागमों में से चुनी हुई 101 (एक सौ एक) गाथाएँ सरलार्थ सहित कुन्दकुन्द शतक नाम से दी जा रही हैं / हमारा विश्वास है कि इनके स्वाध्याय से आपको प्राचार्य कुन्दकुन्द के मूल ग्रन्थों का अध्ययन करने का उत्साह अवश्य जागृत होगा। पंच परमागमों के पालोड़न से हम सभी के परिणामों की परमविशुद्धि हो - इस भावना से विराम लेता हूँ।
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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