________________ 116 ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम अन्त से प्राचार्यदेव कहते हैं :"जिरणवयरणगहिदसारा विषयविरत्ता तवोधरणा धीरा। सोलसलिलेण हादा ते सिद्धालयसुहं जंति // ' जिन्होंने जिनवचनों के सार को ग्रहण कर लिया है और जो विषयों से विरक्त हो गये हैं, जिनके तप ही धन है और जो धीर हैं तथा जो शीलरूपी जल से स्नान करके शुद्ध हुए हैं, वे मुनिराज सिद्धालय के सुखों को प्राप्त करते हैं।" इसप्रकार इस अधिकार में सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित शील की महिमा बताई है, उसे ही मोक्ष का कारण बताया है / इसप्रकार हम देखते हैं कि सम्पूण अष्टपाहुड श्रमरणों में समागत या संभावित शिथिलाचार के विरुद्ध एक समर्थ प्राचार्य का सशक्त अध्यादेश है, जिसमें सम्यग्दर्शन पर तो सर्वाधिक बल दिया ही गया है, साथ में श्रमणों के संयमाचरण के निरतिचार पालन पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है, श्रमणों को पग-पग पर सतर्क किया गया है। __ सम्यग्दर्शन रहित संयम धारण कर लेने पर संयमाचरण में शिथिलता अनिवार्य है। सम्यग्दर्शन रहित शिथिल श्रमण स्वयं को तो संसारसागर में डुबोते ही हैं, साथ ही अनुयायियों को भी ले डूबते हैं तथा निर्मल दिगम्बर जिनधर्म को भी कलंकित करते हैं, बदनाम करते हैं / इसप्रकार वे लोग आत्मद्रोही होने के साथ-साथ धर्मद्रोही भी हैं - इस बात का अहसास आचार्य कुन्दकुन्द को गहराई से था। यही कारण है कि उन्होंने इसप्रकार की प्रवृत्तियों का अष्टपाहुड में बड़ी कठोरता से निषेध किया है / इसप्रकार यह अत्यन्त स्पष्ट है कि अष्टपाहुड शिथिलाचार के विरुद्ध एक सशक्त दस्तावेज़ है / प्राचार्य कुन्दकुन्द के हम सभी अनुयायियों का यह पावन कर्तव्य है कि उनके द्वारा निर्देशित मार्ग पर हम स्वयं तो चलें ही, जगत को भी उनके द्वारा प्रतिपादित सन्मार्ग से परिचित करायें, चलने की पावन प्रेरणा दें। - इसी मंगल कामना के साथ इस उपक्रम से विराम लेता हूँ। 1 अष्टपाहुढ : शीलपाहुड, गाथा 38