________________ अष्टपाहुड ] [ 115 परिणमता है। इसके विशेष मिथ्यात्व-कषाय आदि अनेक हैं, इनको राग-द्वेष-मोह भी कहते हैं। इनके भेद संक्षेप से चौरासी लाख किए हैं, विस्तार से असंख्यात अनन्त होते हैं, इनको कुशील कहते हैं / इनके अभावरूप संक्षेप से चौरासी लाख उत्तरगुरण हैं, इन्हें शील कहते हैं / यह तो सामान्य परद्रव्य के सम्बन्ध की अपेक्षा शील-कुशील का अर्थ है और प्रसिद्ध व्यवहार की अपेक्षा स्त्री के संग की अपेक्षा कुशील के अठारह हजार भेद कहे हैं। इनके अभावरूप अठारह हजार शील के भेद हैं।" वास्तव में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही शील हैं, इनकी एकता ही मोक्षमार्ग है / अतः शील को स्पष्ट करते हुए कहते हैं : "रणारणं चरित्तहीरणं लिंगग्गहरणं च दंसरणविहरणं / संजमहीरणो य तवो जइ चरइ रिंगरत्थयं सम्व // पारणं चरित्तसुद्धं लिंगग्गहरणं च दंसरणविसुद्धं / संजमसहिदो य तवो थोप्रो वि महाफलो होइ / ' चारित्रहीन ज्ञान निरर्थक है, सम्यग्दर्शन रहित लिंगग्रहण अर्थात् नग्न दिगम्बर दीक्षा लेना निरर्थक है और संयम बिना तप निरर्थक है। यदि कोई चारित्र सहित ज्ञान धारण करता है, सम्यग्दर्शन सहित लिंग ग्रहण करता है और संयम सहित तपश्चरण करता है तो अल्प का भी महाफल प्राप्त करता है।" आगे प्राचार्य कहते हैं कि सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान, चारित्र, तप का आचरण करने वाले मुनिराज निश्चित रूप से निर्वाण की प्राप्ति करते हैं। जीवदया, इन्द्रियों का दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप - ये शील के ही परिवार हैं / विष के भक्षण से तो जीव एक बार ही मरण को प्राप्त होता है, किन्तु विषयरूप विष (कुशील) के सेवन से अनन्त वार जन्म-मरण धारण करने पड़ते हैं / ___ शील बिना अकेले जान लेने मात्र से यदि मोक्ष होता है तो दश पूर्वो का ज्ञान जिसको था, ऐसा रुद्र नरक क्यों गया ? अधिक क्या कहें, इतना समझ लेना कि ज्ञान सहित शील ही मुक्ति का कारण है / 1 प्रष्ट पाहुड : शीलपाहुड, गाथा 5 व 6