________________ 114 ] [ आचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम प्रारम्भ में ही प्राचार्य कहते हैं कि धर्मात्मा के लिंग (नग्न दिगम्बर साधु वेष) तो होता है, किन्तु लिंग धारण कर लेने मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती / इसलिए हे भव्यजीवो! भावरूप धर्म को पहिचानो, अकेले लिंग (वेष) से कुछ होने वाला नहीं है। आगे चलकर अनेक गाथाओं में बड़े ही कठोर शब्दों में कहा गया है कि पाप से मोहित है बुद्धि जिनकी, ऐसे कुछ लोग जिनलिंग को धारण करके उसकी हंसी कराते हैं / निग्रंथ लिंग धारण करके भी जो साधु परिग्रह का संग्रह करते हैं, उसकी रक्षा करते हैं, उसका चितवन करते हैं; वे नग्न होकर भी सच्चे श्रमण नहीं हैं, अज्ञानी हैं, पशु हैं / इसीप्रकार नग्नवेश धारण करके भी जो भोजन में गृद्धता रखते हैं, आहार के निमित्त दौड़ते हैं, कलह करते हैं, ईर्ष्या करते हैं, मनमाना सोते हैं, दौड़ते हुए चलते हैं, उछलते हैं, इत्यादि अस क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं, वे मुनि तो हैं ही नहीं, मनुष्य भी नहीं हैं, पशु हैं। आगे चलकर फिर लिखते हैं कि जो मुनि दीक्षा रहित गृहस्थों में और दीक्षित शिष्यों में बहुत स्नेह रखते हैं, मुनियों के योग्य क्रिया और गुरुषों की विनय से रहित होते हैं, वे भी श्रमण नहीं, पशु हैं / जो साधु महिलाओं का विश्वास करके एवं उनको विश्वास में लेकर उनमें प्रवर्तते हैं, उन्हें पढ़ाते हैं, प्रवृत्ति सिखाते हैं, ऐसे वेषधारी तो पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट हैं, विनष्ट हैं; श्रमण नहीं हैं। ___ इसप्रकार की प्रवृत्तियों में पड़े हुए वेषी मुनि बहुत विद्वान होने पर भी - शास्रों के ज्ञाता होने पर भी सच्चे श्रमण नहीं हैं। अन्त में प्राचार्य कहते हैं कि इस लिंगपाहुड में व्यक्त भावों को जानकर जो मूनि दोषों से बचकर सच्चा लिंग धारण करते हैं, वे मुक्ति पाते हैं। (8) शीलपाहुड शीलपाहुड की विषयवस्तु को स्पष्ट करते हुए शीलपाहुड के अन्त में वचनिकाकार पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं : "शील नाम स्वभाव का है। आत्मा का स्वभाव शुद्ध ज्ञानदर्शनमयी चेतनास्वरूप है, वह अनादि कर्म के संयोग से विभावरूप