________________ अष्टपाहुट ] [ 106 मिथ्यात्व, कषाय व नव नोकषायों को भावशुद्धिपूर्वक छोड़, देव-शास्त्रगुरु की विनय कर, जिनशास्त्रों को अच्छी तरह समझकर शुद्धभावों की भावना कर; जिससे तुझे क्षुधा-तृषादि वेदना से रहित त्रिभुवन चूड़ामणि सिद्धत्व की प्राप्ति होगी। हे मुनि ! तू बाईस परीषहों को सह; बारह अनुप्रेक्षाओं की भावना कर; भावशुद्धि के लिए नवपदार्थ, सप्ततत्त्व, चौदह जीवसमास, चौदह गुणस्थान आदि की नाम-लक्षणादिपूर्वक भावना कर; दश प्रकार के अब्रह्मचर्य को छोड़कर नव प्रकार के ब्रह्मचर्य को प्रगट कर। इसप्रकार भावपूर्वक द्रव्यलिंगी मुनि ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप को प्राप्त करता है, भावरहित द्रव्यलिंगी तो चारों गतियों में अनंत दुःखों को भोगता है। हे मुनि ! तू संसार को प्रसार जानकर केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए निर्मल सम्यग्दर्शन सहित दीक्षा लेने की भावना कर, भावों से शुद्ध होकर बाह्य लिंग धारण कर, उत्तम गुणों का पालन कर / जीव, अजीव, प्रास्रव, बंध और संवरतत्व का चिन्तन कर, मन-वचनकाय से शुद्ध होकर आत्मा का चिन्तन कर; क्योंकि जबतक विचारणीय जीवादि तत्त्वों का विचार नहीं करेगा, तबतक अविनाशी पद की प्राप्ति नहीं होगी। हे मुनिवर ! पाप-पुण्य बंधादि का कारण परिणाम ही हैं / मिथ्यात्व, कषाय, असंयम और योगरूप भावों से पाप का बंध होता है। मिथ्यात्व रहित सम्यग्दृष्टि जीव पुण्य को बांधता है। अतः तुम ऐसी भावना करो कि मैं ज्ञानावरणादि आदि पाठ कर्मों से आच्छादित है, मैं इन्हें समाप्त कर निज स्वरूप को प्रकट करूं। अधिक कहने से क्या ? तू तो प्रतिदिन शील व उत्तर गुणों का भेद-प्रभेदों सहित चिन्तन कर। हे मुनि ! ध्यान से मोक्ष होता है / अतः तुम आत्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म व शुक्ल ध्यान को धारण करो। द्रव्यलिंगी के धर्म व शुक्ल ध्यान नहीं होता, अतः वह संसार रूप वृक्ष को काटने में समर्थ नहीं है / जिस मुनि के मन में रागरूप पवन से रहित धर्मरूपी