________________ 110 ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम दीपक जलता है, वही आत्मा को प्रकाशित करता है, वही संसार रूपी वृक्ष को ध्यानरूपी कुल्हाड़ी से काटता है / ___ ज्ञान का एकाग्र होना ही ध्यान है / ध्यान द्वारा कमरूपी वृक्ष दग्ध हो जाता है, जिससे संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, प्रतः भावश्रमण तो सुखों को प्राप्त कर तीर्थंकर व गणधर आदि पदों को प्राप्त करते हैं; पर द्रव्यश्रमण दुःखों को ही भोगता है। अतः गुणदोषों को जानकर तुम भाव सहित संयमी बनो।। भावश्रमण विद्याधरादि की ऋद्धियों को नहीं चाहता, न ही वह मनुष्य-देवादि के सुखों की ही वांछा करता है। वह चाहता है कि शीघ्रातिशीघ्र आत्महित कर लूं / हे धीर ! जिसप्रकार गुड़मिश्रित दूध के पीने पर भी सर्प विष रहित नहीं होता, उसोप्रकार अभव्य जीव जिनधर्म के सुनने पर भी अपनी दुर्मत से आच्छादित बुद्धि को नहीं छोड़ता। वह मिथ्या धर्म से युक्त रहता हुआ मिथ्या धर्म का पालन करता है, प्रज्ञान तप करता है, जिससे दुर्गति को प्राप्त होता हुआ संसार में भ्रमण करता है; अतः तुझे 363 पाखण्डियों के मार्ग को छोड़कर जिनधर्म में मन लगाना चाहिए। सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि जिसप्रकार लोक में जीव रहित शरीर को 'शव' कहते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन रहित पुरुष चल शव है। शव लोक में अपूज्य होता है और सम्यग्दर्शन रहित पुरुष लोकोत्तर मार्ग में अपूज्य होता है / मुनि व श्रावक धर्मों में सम्यक्त्व की ही विशेषता है। जिसप्रकार ताराओं के समूह में चन्द्रमा सुशोभित होता है, पशुओं में मृगराज सुशोभित होता है; उसीप्रकार जिनमार्ग में निर्मल सम्यग्दर्शन से युक्त तप-व्रतादि से निर्मल जिनलिंग सुशोभित होता है। इसप्रकार सम्यक्त्व के गुण व मिथ्यात्व के दोषों को जानकर गुणरूपी रत्नों के सार मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन को भावपूर्वक धारण करना चाहिए / जिसप्रकार कमलिनी स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होती, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव भी स्वभाव से ही विषय-कषायों में लिप्त