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________________ 108 ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम प्रतिनिर्मल आत्मा का चिन्तन करो। जो जीव ऐसा करता है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है। जीव अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द, अलिंगग्रहण, अनिर्दिष्ट-संस्थान व चेतना गुणवाला है। चैतन्यमयी ज्ञानस्वभावी जीव की भावना कर्मक्षय का कारण होती है / __ भाव की महिमा बताते हुए आचार्य कहते हैं कि श्रावकत्व व मुनित्व के कारणभूत भाव ही हैं। भावसहित द्रव्यलिंग से ही कर्मों का नाश होता है। यदि नग्नत्व से ही कार्य सिद्धि हो तो नारकी, पशु आदि सभी जीवसमूह को नग्नत्व के कारण मुक्ति प्राप्त होना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता, अपितु वे महादुःखी ही हैं / अतः यह स्पष्ट है कि भाव रहित नग्नत्व से दु:खों की ही प्राप्ति होती है, संसार में ही भ्रमण होता है / बाह्य में नग्न मुनि पैशून्य, हास्य, भाषा आदि कार्यों से मलिन होता हुआ स्वयं अपयश को प्राप्त करता है एवं व्यवहारधर्म की भी हँसी कराता है। इसलिए आभ्यन्तर भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध होकर ही निर्ग्रन्थ बाह्यलिंग धारण करना चाहिए। भावरहित द्रव्यलिंग की निरर्थकता बताते हुए प्राचार्य कहते हैं कि जिस मुनि में धर्म का वास नहीं है, अपितु दोषों का आवास है, वह तो इक्षुफल के समान है, जिसमें न तो मुक्तिरूपी फल लगते हैं और न रत्नत्रयरूप गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं / अधिक क्या कहें, वे तो नग्न होकर भी नाचनेवाले भांड के समान ही हैं।' __अतः हे आत्मन् ! पहले मिथ्यात्वादि प्राभ्यन्तर दोषों को छोड़कर, भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध होकर, बाह्य निग्रन्थ लिंग धारण करना चाहिए। शुद्धात्मा की भावना से रहित मुनियों द्वारा किया गया बाह्य परिग्रह का त्याग, गिरि-कन्दरादि का प्रावास, ध्यान, अध्ययन आदि सभी क्रियाएँ निरर्थक हैं। इसलिए हे मुनि ! लोक का मनोरंजन करने वाला मात्र बाह्यवेष ही धारण न कर, इन्द्रियों की सेना का भंजन कर, विषय में मत रम, मनरूपी बन्दर को वश में कर, 1 अष्टपाहुड : भावपाहुड, गथा 71
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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