________________ अष्टपाहुड ] [ 107 हे मुनि ! यह देहरूपी घर मांस, हाड़, शुक्र, रुधिर, पित्त, अंतड़ियों, खरिस (रुधिर के बिना अपरिपक्व मल), वसा, पूय (खराब खून) और राध - इन सब मलिन वस्तुओं से पूरा भरा है, जिसमें तू आसक्त होकर अनन्तकाल से दुःख भोग रहा है। समझाते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि हे धीर ! जो सिर्फ कुटुम्बादि से मुक्त हुआ, वह मुक्त नहीं है; अपितु जो आभ्यंतर की वासना छोड़कर भावों से मुक्त होता है, उसी को मुक्त कहते हैं - ऐसा जानकर आभ्यन्तर की वासना छोड़ / भूतकाल में अनेक ऐसे मुनि हुए हैं, जिन्होंने देहादि परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ रूप धारण किया, किन्तु मानादिक नहीं छोड़े; अतः सिद्धि नहीं हुई। जब निर्मान हुए, तभी मुक्ति हुई / द्रव्यलिंगी उग्र तप करते हुए अनेक ऋद्धियां प्राप्त कर लेता है, किन्तु क्रोधादि के उत्पन्न होने के कारण उसकी वे ऋद्धियाँ स्व-पर के विनाश का ही कारण होती हैं / जैसे - बाहु और द्वीपायन मुनि। भावशुद्धि बिना एकादश अंग का ज्ञान भी व्यर्थ है; किन्तु यदि शास्त्रों का ज्ञान न हो और भावों की विशुद्धता हो तो आत्मानुभव के होने से मुक्ति प्राप्त हुई है। जैसे - शिवभूति मुनि। उक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि भाव रहित नग्नत्व अकार्यकारी है / भाव सहित द्रव्य लिंग में ही कर्मप्रकृति के समूह का नाश होता है / हे धीरमुनि ! इसप्रकार जानकर तुझे आत्मा की ही भावना करना चाहिए। जो मुनि देहादिक परिग्रह व मानकषाय से रहित होता हुआ आत्मा में लीन होता है, वह भावलिंगी है / भावलिंगी मुनि विचार करता है कि मैं परद्रव्य व परभावों से ममत्व को छोड़ता हूँ। मेरा स्वभाव ममत्व रहित है, अतः मैं अन्य सभी आलम्बनों को छोड़कर आत्मा का पालम्बन लेता हूं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर, योग - ये सभी भाव अनेक होने पर भी एक आत्मा में ही हैं / संज्ञा, संख्यादि के भेद से ही उन्हें भिन्न-भिन्न कहा जाता है / मैं तो ज्ञान-दर्शनस्वरूप शाश्वत आत्मा ही हूँ; शेष सब संयोगी पदार्थ परद्रव्य हैं, मुझसे भिन्न हैं / अतः हे आत्मन् ! तुम यदि चार गति से छूटकर शाश्वत सुख को पाना चाहते हो तो भावों से शुद्ध होकर