________________ 106 ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम लोक का समस्त जल पिया, तथापि तृष्णा शान्त न हुई / अतः अब समस्त बातों का विचार कर, भव को समाप्त करने वाले रत्नत्रय का चिन्तन कर। हे धीर ! तुमने अनन्त भवसागर में अनेक बार उत्पन्न होकर अपरिमित शरीर धारण किए व छोड़े हैं, जिनमें मनुष्यगति में विषभक्षणादि व तियंचगति में हिमपातादि द्वारा कुमरण को प्राप्त होकर महादुःख भोगे हैं / निगोद में तो एक अन्तर्मुहूर्त में छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म-मरण किया है। हे जीव ! तूने रत्नत्रय के अभाव में दुःखमय संसार में अनादिकाल से भ्रमरण किया है। अत: अब तुम आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान, प्राचरणरूप रत्नत्रय की प्राप्ति करो, ताकि तुम्हारा मरण कुमरण न बनकर सुमरण बन जाए और शीघ्र ही शाश्वत सुख को प्राप्त करो। अब प्राचार्य भावरहित मात्र द्रव्यलिंग धारण करने के पश्चात् हुए दुःखों का वर्णन करते हैं / हे मुनिवर ! तीन लोक में कोई ऐसा स्थल शेष नहीं है, जहाँ तूने द्रव्यलिंग धारण कर जन्म-मरण धारण न किया हो; न ही कोई पुद्गल ऐसा बचा है, जिसे तूने ग्रहण कर छोड़ा न हो; फिर भी तेरी मुक्ति नहीं हई, अपितु भावलिंग न होने से अनंतकाल तक जन्म-जरा प्रादि से पीड़ित होते हुए दुःखों को ही भोगा है / अधिक क्या कहें, इस मनुष्य के शरीर में एक-एक अंगुल में 66-66 रोग होते हैं, फिर सम्पूर्ण शरीर के रोगों का तो कहना ही क्या है ? पूर्वभवों में उन समस्त रोगों को तुने सहा है एवं आगे भी सहेगा। हे मुनि ! तू माता के अपवित्र गर्भ में रहा / वहाँ माता के उच्छिष्ट भोजन से बना हुआ रसरूपी आहार ग्रहण किया। फिर बाल अवस्था में प्रज्ञानवश अपवित्र स्थान में, अपवित्र वस्तु में लेटा रहा व अपवित्र वस्तु ही खाई /