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________________ अष्टपाहुड ] [ 105 करते हुए कहा गया है कि निश्चय से निर्दोष निर्ग्रन्थ साधु ही आयतन हैं, चैत्यगृह हैं, जिनप्रतिमा हैं, दर्शन हैं, जिनबिंब हैं, जिनमुद्रा हैं, ज्ञान हैं, देव हैं. तीर्थ हैं, अरहंत हैं और प्रव्रज्या हैं / (5) भावपाहुड भावशुद्धि पर विशेष बल देने वाले एक सौ पैंसठ गाथाओं के विस्तार में फैले इस भावपाहुड का सार 'प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार : एक समालोचनात्मक अध्ययन' नामक शोध-ग्रन्थ में सुव्यवस्थित रूप से दिया गया है, जिसका संक्षिप्त रूप इसप्रकार है : बाह्य परिग्रह का त्याग भावों की शुद्धि के लिए ही किया जाता है, परन्तु रागादि अंतरंग परिग्रह के त्याग बिना बाह्य त्याग निष्फल ही है; क्योंकि अंतरंग भावशुद्धि विना करोड़ों वर्ष तक भी बाह्य तप करें, तब भी सिद्धि नहीं होती। अत: मुक्तिमार्ग के पथिकों को सर्वप्रथम भाव को ही पहिचानना चाहिए। हे आत्मन् ! तूने भावरहित निर्ग्रन्थ रूप तो अनेक बार ग्रहण किए हैं, पर भावलिंग बिना- शुद्धात्मतत्त्व की भावना बिना चतुर्गति में भ्रमण करते हुए अनन्त दुःख उठाये हैं / नरकगति में सर्दी, गर्मी, आवासादि के; तिर्यंचगति में खनन, ज्वलन, वेदना, व्युच्छेदन, निरोधन आदि के ; मनुष्यगति में आगन्तुक, मानसिक, शारीरिक आदि एवं देवगति में वियोग, हीन भावना आदि के दुःख भोगे हैं / __ अधिक क्या कहें, आत्मभावना के बिना तू मां के गर्भ में महा अपवित्र स्थान में सिकुड़ के रहा / आजतक तूने इतनी मातामों का दूध पिया है कि यदि उसे इकट्ठा किया जावे तो सागर भर जावे / तेरे जन्म-मरण से दुःखी माताओं के अश्रुजल से ही सागर भर जावे। इसीप्रकार तूने इस अनंत संसार में इतने जन्म लिए हैं कि उनके केश, नख, नाल और अस्थियों को इकट्ठा करे तो सुमेरु पर्वत से भी बड़ा ढेर हो जावे। हे आत्मन् ! तूने प्रात्मभाव रहित होकर तीन लोक में जल, थल, अग्नि, पवन, गिरि, नदी, वृक्ष, वन आदि स्थलों पर सर्वत्र सर्व दुःख सहित निवास किया; सर्व पुद्गलों का बार-बार भक्षण किया, फिर भी तृप्ति नहीं हुई। इसीप्रकार तृष्णा से पीड़ित होकर तीन
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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