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काव्यालद्धारसूत्रवृत्ती
[१३-१४ अप्रसिद्धार्थप्रयुक्त गूढार्थम् । २, १, १३ । यस्य पदस्य लोकेऽर्थः प्रसिद्धश्चाप्रसिद्धश्च तदप्रसिद्धेऽर्थे प्रयुक्त गूढार्थम् । यथा
सहस्रगोरिवानीकं दुस्सहं भवतः परैः।
इति । सहस्रं गावोऽक्षीणि यस्य स सहस्रगुरिन्दः । तस्येवेति, गोशब्दम्याक्षिवाचित्वं कविष्वप्रसिद्धमिति ॥ १३ ॥ असभ्यार्थान्तरमसभ्यस्मृतिहेतुश्चाश्लीलम् । १, १, १४ ।
अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयुक्त पद 'गूढार्थ [ दोष से युक्त ] होता है। जिस [अनेकार्थक ] पद का [ एक ] अर्थ लोक में प्रसिद्ध और [दूसरा अर्थ लोक में ] अप्रसिद्ध होता है उसका अप्रसिद्द अर्थ में प्रयोग [ होने पर वह पद ] गूढार्थ होता है । जैसे
___सहन नेत्र वाले इन्द्र के समान प्रापको सेना शत्रुओं के लिए असह्य है। यह । [ इसमें गो शब्द का इन्द्रिय अर्थ मान कर ] सहस्र गौएं अर्थात् चक्षु रूप इन्द्रियां जिसके है वह 'सहस्रगु' इन्द्र हुमा । उसके समान [प्राप] यह [कवि का विवक्षित अर्थ है ] गो शब्द का नेत्रवाचकत्व कवियो में अप्रसिद्ध है।
गौनांके वृपभे चन्द्रे वाग्-भू-दिग-धेनुपु स्त्रियाम् ।
द्वयोस्तु रश्मि-दृग् वाणस्वर्ग वज्रा-ऽम्बुलोमसु ॥ इस कोश के अनुसार 'गो' शब्द का नेत्र अर्थ भी हो सकता है परन्तु गो शब्द को मुकविगण प्राय. नेत्र अर्थ में प्रयुक्त नहीं करते हैं । इसलिए प्रकृत उदाहरण मे प्रयोग 'गूढार्थ दोप कहलाता है । इसी प्रकार
तीर्थान्तरेषु स्नानेन समुपार्जितसत्वयः ।
सुरखोतस्विनीमेप हन्ति सम्प्रति सादरम् ।। इत्यादि स्थलो मे 'हन्ति' पद का गमनार्थ में प्रयोग भी 'गूढार्थ दोप का उदाहरण है। 'इन हिंसागत्योः' इस धातु पाठ के अनुसार 'हन्' धातु के हिंसा और गति दोनों अर्थ हैं। परन्तु कविगण 'इन्' का गमनार्थ में प्रयोग नहीं करते है। इमलिए 'मुरखोतस्विनीमेष हन्ति' यहा गमनार्थ में 'इन्ति' का प्रयोग 'गूढार्थ' टोप कहा जाता है। नवीन प्राचार्य इसी गूढार्थ' दोष को 'अप्रयुक्तत्व' दोष कहते हैं ।। १३ ॥
[आगे अश्लीलार्य रूप पदार्थ दोष का निरूपण करते है -
जिसका दूसरा अर्थ असभ्य [असभ्यता सूचक हो और जिससे असभ्यार्थ की स्मृति होती हो उसको 'प्रक्लील' कहते है।