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________________ सूत्र ५] द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः क्रमेण व्याख्यातुमाह [ ७१ शब्दस्मृतिविरुद्धमसाधु । २, १, ५ । शब्दस्मृत्वा व्याकरणेन विरुद्ध' पद्मसाधु । यथा 'अन्यकारक - वैयर्थ्यम्' इति । छात्र हि, 1 षष्ठ्यतृतीयास्थस्यान्यस्य दुक् आशीराशास्थास्थितोत्सुकोतिकार करागच्छेपु' इति दुका भवितव्यम् इति ॥ ५ ॥ पददोषों का निरूपण किया है परन्तु वामन के बाद दोषो की सख्या मे वृद्धि होकर अन्त मे साहित्यदर्पण के युग में पहुच कर पाच की जगह १८ प्रकार के पद दोष हो गए है । साहित्यदर्पणकार ने उनको इस प्रकार गिनाया हैदुःश्रवत्रिविधाश्ली लानुचिनार्था प्रयुक्तता । ६ ग्राम्याप्रतीतिसन्दिग्धनेयार्थनिहितार्थता ॥ पू ३ वाचकत्वं क्लिष्टत्वं विरुद्धमतिकारिता । अविमृष्टविधेयाशभावश्च पदवाक्ययोः ॥ दोषाः केचिद् भवन्त्येषु पदाशेऽपि पदे परे । निरर्थकासमर्थत्वे च्युतसस्कारता तथा ॥ १८ [ उद्देश के ] क्रम से व्याख्या करने के लिए कहते हैव्याकरणशास्त्र के विपरीत [ शब्द का प्रयोग ] 'असाधु ' [ पद ] कहलाता है । शब्दस्मृति अर्थात् व्याकरणशास्त्र से विरुद्ध पद 'असाधु ' [ पद ] कहलाता है । जैसे, श्रन्यकारक व्यर्थ है। यहां [ इस प्रयोग में ] श्रषष्ठ्यतृतीयास्यस्यान्यस्य दुक् प्राशी-प्राशा-प्रास्था-स्थित उत्सुक ऊति कारक-राग-न्छेषु इस सूत्र से [ अन्य शब्द के अन्त्य अच् से परे ] टुक् [ का आगम होकर 'श्रन्यत्कार कवैयर्थ्यम्' ऐसा प्रयोग ] होना चाहिए । यहा टुक् का आगम न करके 'अन्यकारक' पद का प्रयोग किया गया है । उक्त पाणिनि सूत्र का श्राशय यह है कि श्राशी श्रादि पदों के परे रहते अन्य शब्द को दुक् का आगम हो । इस प्रकार दुगागम होकर अन्यदाशी, अन्यदाशा, अन्यदास्था, अन्यदास्थितः, श्रन्यदुत्सुकः, अन्यदूतिः, श्रन्यद्रागः, और प्रत्यय का अन्यदीयः श्रादि प्रयोग बनते हैं । ' षष्ठी' आदि देने से षष्ठी ' अष्टाध्यायी ६, ३, ६६ ર साहित्यदर्पण ७,२-४ ।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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