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________________ ७२ ] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ श्रुतिविरस कष्टम् । २, १, ६ । श्रुतिविरसं श्रुतिकटु पदं कष्टम् । तद्धि रचनागुम्फितमप्युद्वे जयति । यथा अचूचुरच्चण्डि कपोलयोस्ते कान्तिद्रवं द्राग् विशदः शशाङ्कः ॥६॥ [ सूत्र ६ तथा तृतीया में अन्यस्य श्रन्येन वाशीः अन्याशीः प्रयोग ही होगा । यह कहा जा सकता है कि यहा 'अन्यकारक' पद का प्रयोग करने वाले ने भी 'अन्येषा कारकाणा वैयर्थ्य अन्यकारक वैयर्थ्यम्' इस प्रकार का षष्ठी तत्पुरुष समास और पष्ठी विभक्ति मान कर ही गहा 'अन्यकारकवैयर्थ्यम्' इस प्रकार का प्रयोग किया है । उसमे असाधुत्व का अवकाश कहा है ? इसका उत्तर यह है कि फिर भी | उनका यह प्रयोग ठीक नही है । क्योकि इस पाणिनीय सूत्र के महाभाष्य में भाष्यकार ने सूत्र को दो भागों में विभक्त करके इस प्रकार उसका न्यास किया का । १. अन्यस्य दुक् छकारकयोः, २. पष्ठ्यतृतीयास्थस्याशीराशास्थास्थितोत्सुकोतिरागेपु । भाष्यकार के इस प्रकार के न्यास करने का आशय यह हुआ कि 'छ' प्रत्यय और 'कारक' के परे रहते 'अन्य' शब्द' को सब विभक्तियों मे नित्य दुक् का श्रागम हो और श्राशी, आशा आदि शब्दो के परे रहते पष्ठी तथा तृतीया से भिन्न विभक्तियों के 'अन्य' शब्द को ही दुक् का श्रागम हो । अर्थात् श्राशी, आशा आदि शब्दो के परे रहते षष्ठी और तृतीया के अन्य शब्द को दुक् आगम न होकर यन्याशी, अन्याशा आदि प्रयोग बन जावेगे । परन्तु 'छ' प्रत्यय तथा 'कारक' शब्द के परे रहते टुक् का श्रागम अवश्य होगा इसलिए वहा 'ग्रन्यकारक' प्रयोग न होकर 'अन्यत्कारक' ही बनेगा । 'अन्यकारक ' पद का प्रयोग साधु है | नवीन प्राचार्यों ने इस दोष को च्युतसस्कार नाम से कहा है ||५|| सुनने में विरस अर्थात् कर्णकटु पद 'कष्टपद' [ दोष ] कहलाता है । कानों को अरुचिकर कर्णकटु पद 'कष्टपद' है । [ नवीन आचार्यों ने इसे दुःश्रव नाम से 'व्यवहृत' किया है । ] वह तो रचना में [ लेख रूप में ] निबद्ध होकर भी अरुचिकर होता है । जैसे हे चण्डि [ क्रोधनशीले तुम्हारे नाराज होने पर ] जान पड़ता है कि तुम्हारे गालो के सौन्दर्य रस को एक वम चमकने वाले चन्द्रमा ने चुरा लिया है [ इसीलिए वह तुरन्त चमकने लगा है ] । [ यहां द्राक् यह पद कष्ट श्रुतिकटु या दुःश्रव है ] ॥६॥
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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