SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० ] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ [ सूत्र ४ पददोपान् दर्शयितुमाह दुष्टं पदमसाधु कष्ट ग्राम्यमप्रतीतमनर्थकञ्च । . २, १, ४ । उद्देश तथा लक्षण करने की पद्धति सर्वत्र पाई जाती है । न्याय शास्त्र में त्रिविध शास्त्र प्रवृत्ति का वर्णन आया है। अर्थात् उसमे 'उद्देश' और 'लक्षण' इन दो के साथ 'परीक्षा' को और बढ़ा दिया गया है। इन तीनो रूपो मे न्यायशास्त्र की प्रवृत्ति होती है । परन्तु वैशेषिक आदि दर्शनो में 'परीक्षा' को छोड़ कर 'उद्देश' तथा 'लक्षण' रूप द्विविध शास्त्र प्रवृत्ति का ही वर्णन किया गया है । यहा वामन ने भी 'उद्देश' तथा 'लक्षण' दो का ही कथन किया है। इस श्रधिकरण मे स्थूल रूप से ही प्रतीत होने वाले काव्य के साधुत्वापादक स्थूल दोपों का ही निरूपण किया गया हैं । श्रागे ग्रन्थकार लिखेगे कि 'ये त्वन्ये शब्दार्थदोषाः सूक्ष्मास्ते गुणविवेचने वच्यन्ते' । इस पति से यह अभिप्राय निकलता है कि यहा निरूपण किए जाने वाले दोष, स्थूल दोष ही हैं, सूक्ष्म दोष नही । गुण विपर्यय स्वरूप सूक्ष्म दोषो का निरूपण गुणनिरूपण के प्रसङ्ग में किया जायगा ||३|| इस प्रकार दोप का सामान्य लक्षण और उसके निरूपण की उपयोगिता का प्रतिपादन करके अब दोपो का निरूपण प्रारम्भ करते हैं । पद दोषों को दिखलाने के लिए कहते है १ श्रसाधुपद, २ कष्टपद, ३ ग्राम्यपद, ४ अप्रतीतपद, और ५ अनर्थक पद [ यह पांच प्रकार के पददोष अथवा ] दुष्ट पद होते है ॥४॥ शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं। उनमे से शब्द, पद और वाक्य रूप, तथा अर्थ, पदार्थ, वाक्यार्थं रूप से दो-दो प्रकार के हैं। पद और पदार्थ की प्रतीति हो जाने के बाद हो वाक्य और वाक्यार्थ की प्रतीति हो सकती है। इसलिए वाक्य या वाक्यार्थं के दोषो के निरूपण के पूर्व पद और पदार्थ के दोषों का निरूपण किया है । उनमें भी पद से ही पदार्थ की प्रतीति हो सकती है इसलिए 1 पदार्थ दोषो की अपेक्षा पद-दोषो का निरूपण पहिले किया है । यह सूत्र पद दोषो का 'उद्देश' सूत्र है । इसमे पद दोषों के नामों का सङ्कीर्तन मात्र किया गया है । उनके लक्षण आदि आगे किए जायेगे । सूत्र मे श्राया 'पद' शब्द श्रसाधु, कष्ट, ग्राम्य, अप्रतीत और अनर्थक इन पाचों के साथ जोड़ कर असाधुपर्द, कष्टपद, ग्राम्यपद, अप्रतीतपद, और अनर्थकपद यह पाच प्रकार के पददोप समझने चाहिए । यहा सूत्रकार ने केवल पाच प्रकार के ही
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy