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________________ सूत्र २-३] द्वितीयाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः [६६ अर्थतस्तदवगम । २, १, २ । गुणस्वरूपनिरूपणात् तेषां दोपाणां अर्थादवगमोऽर्थसिद्धिः ॥२॥ किमर्थन्ते पृथक् प्रपञ्च्यन्त इत्याह सौकर्याय प्रपञ्च । १, १, ३ । सौकर्यार्थ प्रपञ्चो विस्तरो दोषाणाम् । उद्दिष्टा लक्षिता हि दोपाः सुज्ञाना भवन्ति ॥ ३॥ की आवश्यकता नहीं है। फिर दोष निरूपण के लिए इस 'दोषदर्शन' अधिकरण की रचना आपने क्यो की है ? ग्रन्थकार इस प्रश्न का उत्तर यह देते हैं कि यह ठीक है कि गुणो के परिज्ञान से भी उनके विरोधी दोपों का ज्ञान हो सकता है। परन्तु यदि उनका साक्षात् लक्षण कर दिया जाय तो पाठक को अधिक सरलता होगी इसलिए पाठकों के सौकर्य के लिए यहा दोपो का प्रपञ्च अथवा निरूपण किया है । इसी पूर्वपक्ष तथा उत्तर पक्ष को अगले दो सूत्रो में दिखलाते हैं । [प्रश्न ] अर्थापत्ति से उन [गुणविरोधी दोषो] का ज्ञान हो सकता है। गुणो के स्वरूप के निरूपण से उन दोषों का अर्थापत्ति से ज्ञान या अर्थतः सिद्धि हो सकती है ॥२॥ [फिर ] उनका पृथक् निरूपण किस लिए कर रहे है, यह कहते है [उत्तर–पाठको की] सरलता के लिए [ दोषों का] प्रपञ्च [विस्तार] किया है। सुगमता के लिए प्रपञ्च अर्थात् दोषो का विस्तृत विवेचन [किया] है। [बोषो के ] नाम गिना देने [ उद्देश] और लक्षण कर देने से दोष सरलता से समझ में आते है। यहा वृत्तिग्रन्थ मे 'उद्देश' तथा 'लक्षण' शब्दों का प्रयोग किया गया है । 'उद्देश' का अर्थ 'नाममात्र का कथन करना' अर्थात् अभिमत पदार्थों का केवल नाम गिना देना है। 'नाममात्रेण वस्तुसङ्कीर्तनमुद्देशः' । और लक्षणन्तु असाधारणधर्मवचनम्' । असाधारण धर्म का कथन करना लक्षण कहलाता है। जैसे 'गन्धवती पृथिवी' अथवा 'सास्नादिमत्त्व गोत्वम्' यह पृथिवी तथा गौ के लक्षण हैं। अभिमत पदार्थों के नाम गिनाकर उनके असाधारण धर्मों को बता देने अर्थात् लक्षण कर देने से पदार्थ भली प्रकार समझ मे आ जाते हैं । इसीलिए
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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