________________
प्रथमाधिकरणे तृतीयोऽध्याय
विपरीतमुत्कलिकाप्रायम् । १, ३, २५ | विपरीतमाविद्धोद्धतपदमुत्कलिकाप्रायम् । यथाकुलिशशिखरखरनखरप्रचयप्रचण्ड चपेटापाटितमत्तमातङ्गकुम्भस्थलगलन्मदच्छटाच्छुरितचारुकेसर भारभासुरमुखे केसरिणि ॥ २५ ॥
सूत्र २५–२६ ]
―――――
[ ५७
पद्यमनेकभेदम् । १, ३, २६ ।
पद्यं खल्वनेकेन समार्थसमविषमादिना भेदेन भिन्नं भवति ॥ २६ ॥
[ चूर्णात्मक गद्य से ] विपरीत 'उत्कलिकाप्राय' [ गद्य ] होता है ।
[ चूर्णात्मक गद्य से ] विपरीत प्रर्थात् दीर्घसमासयुक्त [ श्राविद्ध ] और उद्धत पदो से युक्त [ गद्य ] 'उत्कलिकाप्राय' [ गद्य नाम से कहा जाता ] है | जैसे
बज्रकोटि के समान तीक्ष्ण नखो के कारण भयङ्कर थप्पड से विदीर्ण मत्त हाथी के कुम्भस्थल से गिरती हुए मवधारा से भीगे हुए अयालो के समूह से देदीप्यमान मुख वाले सिंह के होने पर ॥ २५ ॥
गद्यकाव्य का निरूपण कर चुकने के बाद पद्य का निरूपण प्रारम्भ करते हैं। पद्य अनेक प्रकार के होते है ।
सम, अर्धसम और विषम आदि भेद से पद्म अनेक प्रकार के होते हैं ॥ २६ ॥
'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति' के टीकाकार श्री 'गोपेन्द्र त्रिपुरहरभूपाल' ने सम, असम और विषम वृत्तों के लक्षण 'भामह' के मतानुसार इस प्रकार उत किए हैं
सममर्धसमं वृत्तं विपमञ्च त्रिधा मतम् ।
यो यस्य चत्वारस्तुल्यलक्षणलक्षिताः । तच्छ्रुन्दःशास्त्रतत्त्वज्ञाः समवृत्त प्रचक्षते ||१|| प्रथमात्रिसमो यस्य तृतीयश्चरणो भवेत् । द्वितीयस्तुर्यवद् वृत्त तदर्धसममुच्यते ॥२॥ यस्य पादचतुष्केऽपि लक्ष्म भिन्न परस्परम् । तदाहुर्विषम वृत्त छन्दः शास्त्रविशारदाः ॥३॥
ये श्लोक यद्यपि 'भामह' के नाम से टीका मे उद्धृत किए गए हैं परन्तु 'भामह' के 'काव्यालङ्कार' में उनका कही पता नही चलता है। इसी प्रकार ऊपर १, ३, १५ वें सूत्र की वृत्ति मे 'श्राधानोद्धरणे तावत् यावद्दोलायते मनः '