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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र २४ अत्र हि 'वसन्ततिलका' वृत्तस्य भागः प्रत्यभिज्ञायते ॥ २३॥
अनाविद्धललितपद चूर्णम् १, ३, २४ ।
अनाविद्धान्यदीर्घसमासानि ललितान्यनुद्धतानि पदानि यस्मिंस्त- । दनाविद्धललितपदं चूर्णमिति । यथा
अभ्यासो हि कर्मणां कौशलमावहति । न हि सकृन्निपातमात्रेणोदबिन्दुरपि प्रावणि निम्नतामादधाति ॥ २४ ॥
इस [ उदाहरण ] में 'वसन्ततिलका' छन्द का भाग [ एक चरण, पढ़ते हो ] पहिचान लिया जाता है। [ इसलिए इस गद्यांश में 'वसन्ततिलका' वृत्त की गन्ध होने से यह सारा गद्य भाग जिसका यह एकदेश उदाहरणार्थ लिया गया है। 'वृत्तगन्धि' गद्य कहलाता है । _ 'वसन्ततिलका' छन्द का लक्षण है 'उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ।' यद्दी पंक्ति उसका उदाहरण भी है । इसके अनुसार वसन्ततिक्षका वृत्त में प्रत्येक चरण मे १४ अक्षर होते हैं। उनका विन्यास तगण, भगण, जगण, जगण, गुरु, गुरु इस प्रकार होता है। ऊपर के उदाहरण 'पातालतालुतलवासिषु दानवेषु' की रचना इसी क्रम से है । इसलिए वह पद्य के समान प्रतीत होता है । इसलिए वह जिस गद्यभाग का अंश है वह सब 'वृत्तगन्धि' गद्य कहलाता है ॥२३॥
___दूसरे प्रकार की गद्यरचना को 'चूर्ण' कहते हैं । अगले सूत्र मे ग्रन्थकार उस 'चूर्ण ग का लक्षण करते हैं ।
असमस्त [अनाविद्ध ] और ललित पदो से युक्त [गधभाग] 'चूर्ण' कहलाता है।
अनाविद्ध अर्थात् वीर्घसमासरहित और सुन्दर कोमल पद जिस में हो वह अनाविद्ध ललितपद वाला गद्य 'चूर्ण' कहलाता है । जैसे
कर्मों के अभ्यास से ही कौशल प्राप्त होता है । केवल एक बार गिरने से तो जल की बूंद भी पत्थर में गड्ढा नहीं डालती ॥ २४ ॥
___ गद्य का तीसरा भेद 'उत्कलिकाप्राय' कहलाता है। उसका स्वरूप चूर्णास्मक गद्य से बिल्कुल विपरीत होता है । चूर्णात्मक गद्य दीर्घसमासरहित और कोमल पद युक्त होता है, तो 'उत्कलिकाप्राय' गद्य उसके विपरीत दीर्घसमास
और उद्धत पदों से युक्त होता है । इसी प्राशय से ग्रन्थकार उसका लक्षण आगे करते हैं।