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________________ [४१ सूत्र २] प्रथमाधिकरणे तृतीयोऽध्यायः उद्देशक्रमेणैतद् व्याचष्टे- . लोकवृत्त लोकः । १, ३, २। लोकः स्थावरजङ्गमात्मा । तस्य वर्तनं वृत्तमिति ॥२॥ स्थित पाठ की ही व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है। इस पाठ मे वस्तुतः 'काव्ययैः' पद अस्पष्ट है । उसको यदि 'काव्यं याति इति कान्ययः' अर्थात् जो काव्य निर्माण की ओर चलना चाहता है वह 'काव्यय हुआ ऐसा अर्थ कर लें तो पाठ की कथञ्चित् सङ्गति लग जावेगी । उस दशा मे प्रथम श्लोक का अर्थ यह हो जावेगा कि जो काव्य निर्माण की ओर प्रवृत्त होना चाहे उस अभिनव कविपदाकाक्षी को 'शब्द-स्मृति' अर्थात् 'व्याकरण', छन्द, कोश, इतिहासाश्रित कथाएं, लोकव्यवहार, न्यायादि युक्तिशास्त्र और चौसठ प्रकार को कलाओं का मनन और ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । यह पहिले श्लोक का अर्थ हुा । और उसके बाद शब्द और अर्थ को भली प्रकार समझ कर, दूसरे महाकवियो के काव्यो का अवलोकन, तथा कान्यज्ञ विद्वानो की सत्सङ्गति करते हुए काव्यरचना का अभ्यास करना चाहिए । यह भामह के काव्यसाधन-प्रतिपादक दोनों श्लोको का भावार्थ हुना । वामन ने भी प्रायः इन्हीं साधनो का निरूपण किया है। ____१'नाममात्रेण वस्तुसङ्कीर्तन उद्देश:'-नाम मात्र से वस्तु के कथन करने अर्थात् पदार्थों के केवल नाम गिनाने को 'उद्देश' कहते हैं । जैसे कि यहा प्रथम सूत्र मे लोक, विद्या, और प्रकीर्ण यह काव्यागों के नाम मात्र गिना दिए हैं। उनका लक्षण आदि नही किया है । इसी को 'उद्देश' कहते हैं। 'उद्देश' के समय पदार्थों के पौर्वापर्व का जो क्रम रहता है उसी क्रम से आगे उनकी व्याख्या, लक्षण आदि किए जाते हैं। इसलिए यहा भी अन्धकार 'उद्देश-क्रम' से काव्यानो के लक्षण आदि करने के लिए अवतरणिका करते हैं उद्देश के क्रम से इनकी व्याख्या करते हैंलोक व्यवहार [ यहां ] लोक [ शब्द से अभिप्रेत ] है। स्थावर [वृक्षादि अचल ] और जङ्गम [चल मनुष्यादि] रूप [जगत् ] लोक [ शब्द का मुख्यार्थ ] है । उसका वृत्त अर्थात् व्यवहार यह [लोकवृत्त पद का अर्थ है ।।२।। २ तर्कभाषा पृ० ५।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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