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शारीरनाम्नि प्रथमाधिकरणे
तृतीयोऽध्यायः [काव्याङ्गानि काव्यविशेषाश्च] अधिकारिचिन्तां रीतितत्वञ्च निरूप्य काव्याङ्गान्युपदर्शयितुमाहलोको विद्या प्रकीर्णञ्च काव्याङ्गानि । १, ३, १।।
शारीर नामक प्रथम अधिकरण में तृतीय अध्याय
[काव्य के अङ्ग और काव्य के भेद] पिछले अध्याय में ग्रन्थकार ने इस अन्य के 'अधिकारी तथा उसके प्रतिपाद्य विषय के मुख्य भाग 'रीति' का विवेचन किया था । उसके पूर्व अर्थात् प्रथमाधिकरण के प्रथम अध्याय मे अन्य के प्रयोजन का निरूपण कर चुके हैं । इस प्रकार इन विगत दो अध्यायो में 'अनुबन्ध चतुष्टय' में से 'अधिकारी', 'प्रयोजन' और 'विषय' इन तीनों अनुबन्धो का निरूपण हो गया। अब शेष चौथा 'सम्बन्ध' नामक अनुबन्ध रह जाता है। उसके स्पष्ट होने से ग्रन्थकार ने अलग नहीं दिखाया है। ग्रन्थ का, विषय के साथ 'प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भाव', और अधिकारी के साथ 'बोध्य-बोधकमाव' सम्बन्ध सदा ही होता है। इसलिए उसको अलग दिखलाने की अधिक आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार यहा तक 'अनुबन्ध चतुष्टय' का निरूपण कर चुकने के बाद अन्धकार अब अपने विषय का प्रतिपादन प्रारम्भ करते हैं।
जैसे पिछले अध्याय मे 'अधिकारी' तथा 'रीति निश्चय' रूप दो विषयों का प्रतिपादन किया था इसी प्रकार इस अध्याय में 'काव्य के अङ्ग' और 'कान्य के भेद' इन दो विषयों का निरूपण करेंगे। काव्य के अङ्ग शब्द से काव्य के अवयवों का नहीं अपितु साधनो का ग्रहण करना चाहिए । अन्यकार इस अध्याय के प्रारम्भिक २० सूत्रों में काव्य के साधनों का और अन्तिम १२ सूत्रों में काव्य के मुख्य भेदो का निरूपण करेंगे। सबसे पूर्व पिछले अध्याय के साथ इस अध्याय की सङ्गति जोड़ते हुए ग्रन्थकार अध्याय का प्रारम्भ करते हैं
अधिकारिचिन्ता और रीतिनिश्चय का [पिछले अध्याय में ] निरूपण करके [अब इस अध्याय में ] काव्य के साधनों [अङ्गों ] को दिखलाने के लिए कहते हैं
(१) लोक [ अर्थात् स्थावर-जगमात्मक लोक का व्यवहार], (२) विद्या