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सूत्र २२ ]
प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
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पण करो यदि वह तत्व पा जाता है तो दोनों अवस्थाओं में कान्य उपादेय होगा अन्यथा उससे मिन्न होने पर 'वैदर्भ मार्ग' भी काव्य को उपादेय नहीं बना सकता है । यदि अलङ्कारयुक्त, ग्राम्यता दोष से रहित, सुन्दर अर्थ से युक्त और सुसङ्गत काव्य है तो वह भले ही 'गौड़ीय मार्ग से लिखा गया हो, वह अवश्य सहृदयों के हृदय मे चमत्कार को उत्पन्न करेगा । और यदि इन गुणों से विहीन काव्य है तो फिर वह भले ही वैदर्भ मार्ग से लिखा गया हो वह सहृदयों के लिए चमत्कारजनक नहीं हो सकता है।
इस प्रकार भामह ने अपने समय के मार्गों के प्रचलित भेद के प्रति अरुचि प्रकट की है परन्तु उस से यह स्पष्ट है कि वामन की तीन रीतियो के स्थान पर भामह के समय दो मार्ग का मानने वाला कोई सम्प्रदाय प्रचलित था।
कुन्तंक का त्रिमार्ग सिद्धान्त
'वक्रोक्ति जीवितम्' नामक प्रसिद्ध सहित अन्य के निर्माता कुन्तक ने देश के आधार पर माने गए दोनों मार्गों तथा वामन की तीनों रीतियो का खण्डन कर 'रचना शैली' के आधार पर 'सुकुमार', 'मध्यम' और 'विचित्र' इन तीन प्रकार के मार्गों का प्रतिपादन किया है।
'सम्प्रति तत्र ये मार्गाः कविप्रस्थानहेतवः ।
सुकुमारो विचित्रश्च मध्यमश्चोभयात्मकः ॥ अर्थात् काव्य रचना के केवल तीन मार्ग हो सकते हैं। न इससे कम एक या दो और न इससे अधिक चार या पाच । इन तीनो मार्गों में से पहिला सुकुमार, दूसरा विचित्र और तीसरा सुकुमार तथा विचित्र के योग से बना मध्यम मार्ग है।
देशाधित रीतिवाद तथा मार्गवाद का खण्डन
विदर्भादि देशों के आधार पर मानी गई वामन की तीन रीतियों तथा भामह द्वारा उल्लिखित दो मागों के सिद्धान्त का खण्डन करते हुए कुन्तक ने लिखा है
'अत्र बहुविधा विप्रतिपत्तयः सम्भवन्ति । यस्माच्चिरन्तनैर्विदर्भादिदेशसमाश्रयेण वैदर्भीप्रभृतयो रीतयस्तिस्रः समाम्नाताः । तासा चोत्तमाधममध्यमत्वेन त्रैविध्यम् । अन्यैश्च वैदर्भगौड़ीयलक्षणं मार्गद्वितयमाख्यातम् । एतच्चोभयमप्ययुक्ति
' वक्रोक्तिनीवितम् १, २४ । वक्रोक्तिजीवितम् १, २४ ।