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________________ ३६ ] [ सूत्र २२ युक्तम् । यस्माद्देशभेदनिबन्धनत्वे रीतिभेदाना देशानामानन्त्यादसख्यत्वं प्रसज्यते । न च विशिष्टरीतियुक्तत्वेन काव्यकरणं मातुलेयभगिनी विवाहवद् देशधर्मतया व्यवस्थापयितु ं शक्यम् । देशधर्मो हि वृद्धव्यवहारपरम्परामात्रशरणः शक्यानुष्ठानता नातिवर्तते । तथाविधकाव्यकरणं पुनः शक्त्यादिकारणकलापसाकल्यमपेक्षमाणो न शक्यते यथाकथञ्चिदनुष्ठातुम्' | काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ इसका अभिप्राय यह हुआ कि मार्ग के विषय में अनेक प्रकार के मतभेद हो सकते हैं। क्योंकि वामन आदि प्राचीन श्राचार्यों ने विदर्भ आदि देश विशेष के श्राश्रय से वैदर्भी आदि तीन रीतिया मानी है । और उन रीतियों में वैदर्भी को सर्वोत्तम मान कर उत्तम, मध्यम, अधम रूप से तीन विभाग किए हैं । इसके अतिरिक्त भामह के काव्यालङ्कार मे पाए जाने वाले मत के अनुसार अन्य लोगों ने वैदर्भ तथा गौड़ीय रूप दो प्रकार के मार्ग माने हैं । यह दोनो मत युक्तिसङ्गत नही हैं। क्योंकि काव्य रचना की रीतियों को यदि देशविशेष के आधार पर विभक्त किया जायगा तो देशो के अनन्त होने से रीतियों की अनन्तता माननी होगी । जो कि असङ्गत है । किसी देशविशेप में प्रचलित ममेरी बहन के साथ विवाह आदि के समान रीतियों को दैशिक आचारमात्र नही माना जा सकता है। क्योंकि दैशिक श्राचार में तो केवल वृद्धव्यवहारपरम्परा ही प्रमाण है । इसी लिए वृद्धव्यवहार के अनुसार उसका अनुष्ठान किया जा सकता है परन्तु काव्य की रचना तो वृद्धव्यवहार के ऊपर श्राश्रित नहीं हैं । उसके लिए तो शक्ति और व्युत्पत्ति श्रादि कारणकलाप की श्रावश्यकता होती है। उसके बिना केवल दैशिक धर्म के रूप में काव्य की रचना नही की जा सकती है । इसलिए दैशिक श्राचारों के समान देश-भेद के धार पर काव्य-रचना की रीतियों का भेद करना उचित नहीं है । * किञ्च शक्तौ विद्यमानायामपि व्युत्पस्या दिराहार्य कारणसम्पत् प्रतिनियतदेशविपयतया न व्यवतिष्ठते । नियमनिबन्धनाभावात् तत्रादर्शनादन्यत्र च दर्शनात् । श्री शक्ति के होने पर भी व्युत्पत्ति श्रादि उपार्जित कारण सामग्री की भी काव्य-रचना मे श्रावश्यकता होती है। वह कारण सामग्री भी किसी देशविशेष में नियमित नहीं है। क्योंकि विदर्भ श्रादि उस-उस देश में रहने वाले अन्य बहुत से पुरुषों को उस प्रकार की शक्ति तथा व्युत्पत्ति प्राप्त नही होती है और उस देश से भिन्न स्थल में भी उस प्रकार की सामग्री प्राप्त हो जाती है । इसलिए काव्य १,२ वक्रोक्तिजीवितम् का० १, २४ ।
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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