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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र २२
रीतियों का वर्णन किया है और उन्हीं को काव्य की आत्मा माना है । वामन के पूर्ववर्ती भामह ने रीति के स्थान पर 'मार्ग' शब्द का प्रयोग किया है और उसके तीन की जगह केवल दो भेद किए हैं—'वैदर्भ मार्ग' तथा 'गौड़ीय मार्ग' । ऐसा प्रतीत होता है कि भामह के समय मे काव्य-रचना के यह दो मार्ग प्रचलित थे । परन्तु वह स्वयं दोनों मार्गों का भेद मानने के पक्ष में नहीं हैं । मार्ग-भेद के विषय मे अरुचि सी दिखलाते हुए उन्होंने लिखा है
वैदर्भमन्यदस्तीति मन्यन्ते सुधियः परे । तदेव च किल ज्यायः सदर्थमपि नापरम् ।। ३१ ।। गौड़ीयमिदमेतत्तु वैदर्भमिति किं पृथक् । गतानुगतिकन्यायान्नानाख्येयममेघसाम् ॥ ३२ ॥ ननु चाश्मकवंशादि वैदर्भमिति कथ्यते । कामं तथास्तु प्रायेण सज्ञेच्छातो विधीयते ॥ ३३ ॥ अपुष्टार्थमवक्रोक्तिं प्रसन्नमूजु कोमलम् । मिन्नं गेयमिवेदन्तु केवलं श्रुतिपेशलम् ॥ ३४ ॥ अलङ्कारवदग्राम्यमध्ये न्याय्यमनाकुलम् ।
गौड़ीयमपि साधीयो वैदर्भमिति नान्यथा ॥ ३५ ॥ इसका अभिप्राय यह है कि कुछ लोग 'वैदर्म मार्ग' को 'गौड़ीय मार्ग से अलग मानते हैं और यह कहते हैं कि वही वैदर्भ मार्ग उत्तम मार्ग है । सदर्थ युक्त होने पर दूसरा अर्थात् 'गौड़ीय मार्ग उस वैदर्भ 'मार्ग' के बराबर नहीं हो सकता है। परन्तु भामहाचार्य का कथन यह है कि यह 'वैदर्भ' और 'गौड़ीय' मार्ग के भेद की कल्पना व्यर्थ है। मूर्ख लोग गतानुगतिक न्याय से, या भेड़-चाल से क्या नहीं कह सकते हैं। सब प्रकार की अनर्गल वातें कहने लगते हैं । अर्थात् उनके मतानुसार यह 'वैदर्भ' तथा 'गौड़ीय मार्ग के भेद की कल्पना केवल मेड़चाल के आधार पर चल रही है और मूर्खतापूर्ण है।
कोई यदि यह कहे कि नहीं, मार्ग की यह कल्पना निराधार नहीं है अपितु देश के आधार पर की गई है। अश्मक वंश आदि देश विदर्भ कहलाता है। उसी के आधार पर 'वैदर्भमार्ग' माना जाता है। और वह 'गौड़ीयमार्ग' से भिन्न है । इसके उत्तर में भामहाचार्य कहते हैं कि यह वैदर्भ श्रादि संज्ञाएं तो आपने अपनी इच्छा के अनुसार कर ली हैं। काव्य का सौन्दयोधायक तत्व तो एक ही है। उसे चाहे 'वैदर्भ मार्ग से, चाहे 'गौड़ीय मार्ग से निरू