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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[ सूत्र १५
पाञ्चालीति परम्परापरिचितो वादः कवीना पर, वैदर्भी यदि सैव वाचि किमितः स्वर्गेऽपवर्गेऽपि वा ॥ नीलकण्ठ के मत मे 'वैदर्भी रीति स्वादु, श्रह्लाददायक वस्तुओं मे
सबसे प्रथम है। उसका अवलम्बन करने से कवियो को अपने कवित्व की परा - काष्ठा प्राप्त होती है । 'या ते निःश्वसितम्' जो वैदर्भी तेरी अर्थात् सरस्वती 1 की प्राण स्वरूप है जिसमें नवो रसों का श्रास्वादन हो सकता है । कुछ लोग 'पाञ्चाली' को भी रीति कहने हैं परन्तु यह उन कवियों का केवल परम्परापरिचितवादमात्र [ भेड़चाल ] है, उसमे तथ्य नही है । वास्तव मे तो वैदर्भी रीति ही इन गुणो से युक्त है । यदि वाणी मे उस वैदर्भी रीति का राज्य है तो फिर उसके सामने स्वर्ग या अपवर्ग में भी कुछ तत्व नही हैं ।
महाकवि 'श्रीहर्ष' पण्डित कवि थे । उनकी कविता कठिन और शास्त्रचर्चा बहुल है । परन्तु वह भी अपने को 'वैदर्भी' के पाश मे फसा हुआ पाते हैं । जैसे वैदर्भी दमयन्ती ने अपने सौन्दर्यादि गुणो से नैषध नल को अपनी चोर खीच लिया था इसी प्रकार 'समग्रगुणसम्पन्ना' वैदर्भी रीति ने महाकवि श्रीहर्ष के नैषध काव्य को भी अपनी ओर आकृष्ट कर लिया है। इस रहस्य को श्रीहर्प श्लेष मुख से स्वय ही स्वीकार करते हुए नैषध काव्य मे लिखते हैं
धन्यासि वैदर्भि गुणैरुदारैर्यया समाकृष्यत नैषधोऽपि । इतः स्तुतिः का खलु चन्द्रिकाया यदब्धिमप्युत्तरलीकरोति ॥ नैषध के श्लेषमय चौदहवें सर्ग में भी श्रीहर्ष ने श्लेष से वैदर्भी रीति, की प्रशंसा करते हुए लिखा है
१ नंबघ ३, ११६ ॥
घ १४, ६१ ॥
गुणानामास्थानी नृपतिलकनारीति विदिता रसस्फीतामन्तः तव च तव वृत्ते च कवितुः । भवित्री वैदर्भीमधिकमधिकण्ठ रचयितु परीरम्भक्रीडा चरणशरणामन्वहमयम् ॥ अधिक क्या इस अध्याय के अन्त मे स्वय ग्रन्थकार वामन ने भी वैदर्भी रीति की प्रशसा मे दो प्राचीन श्लोक उद्धृत किए हैं। फलतः इस वैदर्भी रीति के सामने श्रन्य दोनों रोतिया हेय अर्थात् अल्प महत्व की हैं यह वामन का अभिप्राय है । जिसे उन्होंने इन दोनो सूत्रो मे अभिव्यक्त किया है ॥ १५ ॥