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सूत्र १६-१८] प्रथमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः [२६
तदारोहणार्थमितराभ्यास इत्येके ॥ १, २, १६ ॥
तस्या वैदO एवारोहणार्थमितरयोरपि- रील्योरभ्यास इत्येके मन्यन्ते ॥ १६ ॥
तच्च न, अतत्त्वशीलस्य तत्त्वानिष्पते. ॥१, २, १७॥ न ह्यतत्त्वं शीलयतस्तत्त्वं निष्पद्यते ॥ १७ ॥
निदर्शनमाहन शणसूत्रवानाभ्यासे त्रसरसूत्रवानवैचित्यलाभ ॥१,२,१८॥
कुछ लोगो का मत है कि वैदर्भी मार्ग की प्राप्ति का साधन पाञ्चाली तथा गौडी रीतियों का अभ्यास है। अर्थात् गौड़ी तथा पञ्चाली रीति मे रचना करना सरल है और उसका अभ्यास करते-करते कवि समय पर वैदर्भी रीति में स्चना करने में भी समर्थ हो सकता है। परन्तु वामन इस मत के अत्यन्त विरुद्ध हैं। उनका कहना है कि अतत्त्व के अभ्यास से तत्व को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। जैसे सन की सुतली से टाट की पट्टी बुनने वाला व्यक्ति अपने उस अभ्यास से टसर के सुन्दर रेशमी वस्त्र बुनने में कौशल प्राप्त नहीं कर सकता है। इसी प्रकार पाञ्चाली तथा गौड़ी रीतियों का अभ्यास करने वाला कवि उनके अभ्यास के द्वारा वैदी रीति मे अभ्यास-पाटव प्राप्त नहीं कर सकता है । इसी बात को ग्रन्थकार आगे कहते हैं।
उस [ वैदर्भी रीति ] के श्रारोहण के लिए दूसरी [ गौडो तथा पाञ्चाला रीति ] का अभ्यास [ उपयोगी या साधनभूत होता] है ऐसा कोई लोग मानते हैं।
उस [वैदर्भी रीति ] के आरोहण [ उसकी प्राप्ति के लिए ही शेष दोनों [ गौडी तथा पाञ्चाली ] रीतियों का अभ्यास होता है ऐसा कोई लोग मानते हैं ॥ १६ ॥
उनके मत का खण्डन करते हैंवह ठीक नहीं है । अतत्व के अभ्यास से तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती। अंतत्त्व का अभ्यास करने वाले को तत्व की सिद्धि नहीं होती है ॥ १७॥ [अपने इस कथन को पुष्टि में ] उदाहरण [ के लिए ] कहते हैसन की डोरी [ की पट्टियों ] के वुनने के अभ्यास करने पर टसर