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सूत्र ५ ]
प्रथमाधिकरणे प्रथमोऽध्यायः
इति श्री पण्डितवरवामनविरचित काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तौ 'शारीरे' प्रथमेऽधिकरणे प्रथमोऽध्यायः । इति प्रयोजनस्थापना ।
[ कुकवि बनने से तो कवि रहना अच्छा है । क्योंकि ] कवित्व से तो अधिक-से-अधिक व्याधि या दण्ड का भागी हो सकता है परन्तु कुकवित्व को तो विद्वान् लोग साक्षात् मृत्यु ही कहते हैं ।
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वामन ने जिस प्रकार के तीन सग्रह श्लोक इस अध्याय की समाप्ति में दिए हैं इसी प्रकार के श्लोक सारे ग्रन्थ में उन्होने अनेक जगह उद्धृत किए हैं। इनमे से विकाश श्लोकों का यह पता नहीं चलता है कि उन्होंने कहा से लिए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वह श्लोक उनके स्वय अपने ही बनाए हुए हैं । 'ध्वन्यालोक' तथा 'वक्रोक्तिजीवित' आदि में यह शैली देखी जाती है। इन ग्रन्थो के लेखकों ने भी अपने मूल ग्रन्थों की रचना कारिका रूप मे करके उनकी वृत्ति भी स्वय ही लिखी है । उन्होंने वृत्ति लिखते हुए अनेक स्थलो पर कुछ सग्रह श्लोक लिखे हैं । वह श्लोक कारिकाओं से भिन्न और वृत्ति ग्रन्थ के भाग हैं। कुन्तक ने इन श्लोकों को 'अन्तरश्लोक' शब्द से कहा है । 'ध्वन्यालोक' में 'सग्रह' नाम से उनका निर्देश हुआ है। इसी प्रकार वामन ने अपने सूत्रों पर स्वयं 'वृत्ति' लिखते हुए स्थान-स्थान पर इस प्रकार के श्लोक लिखे हैं । इन्हीं को प्रायः 'अत्र श्लोकाः ' श्रादि शब्दों से वामन ने निर्दिष्ट किया है | कही कहीं इस प्रकार के श्लोक वामन ने भामह के काव्यालङ्कार श्रादि प्राचीन ग्रन्थों से भी उद्धृत किए हैं। जहा उनका पता लग जाता है वहा तो वह प्राचीन श्लोक ही मानने होंगे, शेष श्लोक वामन के अपने श्लोक मानने होंगे । इसी लिए यह श्लोक भी वामन स्वरचित 'संग्रह' रूप ही हैं ।
श्री पण्डितवरवामनविरचित 'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति' मे
प्रथम 'शारीराधिकरण' में प्रथमाध्याय समाप्त हुना । प्रयोजन की स्थापना समाप्त हुई ।
श्रीमदाचार्यविश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणिविरचिताया काव्यालङ्कारदीपिकाया हिन्दीव्याख्याया प्रथमे शारीराऽधिकरणे प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।