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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती
[सूत्र ५
से और 'व्यवहारविदे', 'सद्यः परनिवृतये' तथा 'कान्तासम्मिततया उपदेशयुजे' यह तीन प्रयोजन पाठक के उद्देश्य से रखे गए हैं। इस प्रकार कान्य प्रयोजनों के निरूपण में उत्तरोत्तर विकास हुआ जान पड़ता है।
कीर्ति को काव्य का मुख्य प्रयोजन बतलाते हुए वामन ने जिस प्रकार के तीन श्लोक इस अध्याय के अन्त मे लिखे हैं, उसी प्रकार के श्लोक भामह के 'काव्यालङ्कार' में भी पाए जाते हैं । जो इस प्रकार हैं
'उपयुषामपि दिव सन्निबन्धविधायिनाम् ।
आस्त एव निरातङ्क कान्तं काव्यमय वपुः ॥ ६ ॥ रुणद्धि रोदसी चास्य यावत् कीर्तिरनश्वरी। तावत् किलायमध्यास्ते सुकृती वैबुध पदम् ॥ ७ ॥ अतोऽभिवाञ्छता कीर्ति स्थेयसीमाभुवः स्थितः । यत्नो विदितवेद्येन विधेयः काव्यलक्षणः ॥ ८॥ सर्वथा पदमप्येकं न निगाद्यमवद्यवत् । विलक्ष्मणा हि काव्येन दुःसुतेनेव निन्द्यते ॥ ११ ॥ अकवित्वमधर्माय व्याधये दण्डनाय वा।
कुकवित्व पुनः साक्षान्मृतिमाहुर्मनीषिणः ॥ १२ ॥
अर्थात् उत्तम काव्यों की रचना करने वाले महाकवियों के दिवगत हो जाने के बाद भी उनका सुन्दर काव्य शरीर [यावच्चन्द्रदिवाकरौ] अक्षुण्ण बना रहता है।
और जब तक उसकी अनश्वर कीर्ति इस भूमण्डल तथा आकाश में व्याप्त रहती है तब तक वह सौभाग्यशाली पुण्यात्मा देव पद का भोग करता है।
इसलिए प्रलय पर्यन्त स्थिर कीति को चाहने वाले कवि को कवि के उपयोगी समस्त विपय का ज्ञान प्राप्त कर उत्तम काव्य रचना के लिए परम प्रयत्न करना चाहिए ।
काव्य मे एक भी अनुपयुक्त पद न आने पावे इस बात का ध्यान रखे। क्योंकि कुकाव्य की रचना से कवि उसी प्रकार निन्दा का भाजन बनता है जिस प्रकार कुपुत्र को उत्पन्न करके ।
'भामह काव्यालङ्कार १।