SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्यों "लोक सीव उलँधै अरथा लिख दिया है ! यहां भी या तो पाठ की गढवड़ है या अर्थ समझने में भ्रांति हुई है। इस प्रसंग में भी देव ने एक नवीन उद्भावना कर डाली है-वह यह है कि आपने प्रत्येक रीति (गुण) के दो भेद माने हैं-नागर और ग्राम्य । इन दोनों में यह अन्तर है कि नागर रीति में सुरुचि का प्राधान्य होता है, ग्राम्य में रस का प्राधिक्य होते हुए भी सुरुचि का प्रभाव रहता है। नागर गुन ागर, दुतिय रस-सागर रुचि-हीन । (शब्द-रसायन) वैसे दोनों को अपनी अपनी विशेषता है-एक को उत्कृष्ट और दूसरी को निकृष्ट कहना अरसिकता का परिचय देना होगा। -देव की अन्य उद्भावनाओं की भाँति यह भी महत्वहीन ही है और एक प्रकार से असंगत भी क्योंकि पहले तो मानव-स्वभाव में नागर और ग्रामीण का मूलगत भेद मानना ही युक्तिसंगत नहीं है (देव अपने उदाहरणों द्वारा यह अन्तर स्पष्ट करने में प्रायः असफल रहे हैं), फिर यदि इस स्थूल भेद को स्वीकार भी कर लिया जाए, तो कांति, उदारता आदि कतिपय गुण ऐसे हैं जिनके लिए अग्राम्यत्व अनिवार्य है। ऐसी दशा में इनके भी नागर और ग्रामीण भेद करना इनकी आत्मा का ही निषेध करना है। शब्द-शक्ति, रीति, गुण आदि के अतिरिक देव ने कैशिकी, भारभटी, सात्वती और भारती वृत्तियों का वर्णन भी किया है जो कि अव्यकाव्य का अंग न होकर दृश्यकाव्य का ही अंग मानी जाती हैं । शृङ्गार, हास्य और करुण में कैशिकी (कौशिकी); रौद्र, भयानक और वीभत्स में प्रारमटी; वीर, रौद्र, अद्भुत और शांत में सात्वती; तथा वीर, हास्य और अद्भुत में भारती वृति का प्रयोग होता है । संस्कृत में नाट्य-शास्त्र, दशरूपक, साहित्य-दर्पण आदि में भी रसों के अनुक्रम से ही इनका विवेचन है-परन्तु देव का आधार यहां उपर्युक अन्य न होकर केशवदास की रसिक-प्रिया ही है। रसिक-प्रिया में ठीक इसी क्रम से इनका रसों के साथ सम्वन्ध बैठाया गया है, एक थोड़ा सा अन्तर यह है कि सात्वती के अन्तर्गत शृङ्गार के स्थान पर देव ने भरत के आधार पर रौद्र को माना है, बस, परन्तु केशव में भी शायद यह लिपि-दोष है। देव के उपरान्त दास तक प्रायः किसी भी कवि ने रीति अथवा रीतितत्वों का विशेष विवेचन नहीं किया । इनके प्रसंग में दो बातें उल्लेख योग्य (१८)
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy