________________
लक्षण प्रायः दण्डी के ही अनुसार हैं। केवल दो-तीन गुण ही ऐसे रह जाते हैं जिनके लक्षण भरत, दण्डी और वामन तीनों से भिन्न हैं । कांति गुण में, देव के अनुसार, सुरुचिपूर्ण चारु वचनावली होनी चाहिये जिसमें लोकमर्यादा की अपेक्षा कुछ विशेषता हो और जो अपने इसगुण के कारण लोगोंको सुखकर हो :
अधिक लोकमर्जांद ते, सुनत परम सुख जाहि । चारु वचन ये कांति रुचि, कांति बखानत ताहि ॥
( शब्द - रसायन)
इस लक्षण का शेष भाग तो दण्डी से मिल जाता है, परन्तु दण्डी जहां लोक-मर्यादा के अनुसरण को (लौकिकार्थनातिक्रमात् ) अनिवार्य मानते हैं वहां देव में उसके अतिक्रमण का स्पष्ट उल्लेख है । दण्डी के अनुसार तो अप्राकृतिकता अथवा अस्वाभाविकता का बहिष्कार करते हुए लौकिक मर्यादा के अनुकूल स्वाभाविक वर्णन करना ही कांति गुण का मुख्य तत्व है । वामन ने समृद्धि अर्थात् श्रज्ज्वल्य और रस-दीप्ति को कांति गुण का सार तत्व माना - जिसके लिए साधारण प्रचलित शब्दावली का बहिष्कार अनिवार्य है । देव ने या तो दण्डी का अभिप्राय नहीं समझा - या फिर कुछ पाठ की गड़बड़ है । इसके अतिरिक्त एक सम्भावना यह हो सकती है कि 'अधिक लोक द' से देव का अभिप्राय कदाचित् वामन द्वारा निर्दिष्ट साधारण बचना - वली के बहिष्कार का ही हो परन्तु यह कुछ क्रिष्ट कल्पना ही लगती है । इसी प्रकार उदारता के लक्षण में भी 'यस्मिन् उक्ते (जाहि सुनत हो), तथा 'उत्कर्ष' आदि शब्द देव ने दरडी से ही लिए हैं, परन्तु दण्डी जहां उत्कर्ष की भावना को उदारता का प्राण मानते हैं, वहां देव का कहना है
जाहि सुनत ही धोज को दूर होत उत्कर्ष ।
( शब्द-रसायन)
प्रोज का उत्कर्ष दूर होने से उनका क्या अभिप्राय है यह जानना कठिन है । प्रयत्न करने पर यही अर्थ निकाला जा सकता है कि उदारता में एक प्रकार का उत्कर्ष होता है, जो प्रोज के उत्कर्ष से भिन्न होता है या फिर
यहां भी प्रतिलिपिकार की कृपा से पाठ की कुछ उलट फेर है । इसी प्रकार
1
समाधि के लक्षण देव और दरडी के यों तो समान है— किन्तु दण्डी के वहां "लोकसी मानुरोधिना (लोक मर्यादा के भीतर) के स्थान पर देव ने न जाने
( १२७ )