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हैं : एक तो सूरति मिश्र ने अपने लक्षण में रीति का समावेश करते हुए उसको । काव्य का आवश्यक अंग माना है :
बरनन मन-रंजन जहां रीति अलौकिक होइ ।
निपुन कर्म कवि को जु तिहि काव्य कहत सब कोइ । जहां तक मुझे स्मरण है संस्कृत-हिन्दी के किसी कवि ने रीति का काव्य-लक्षण . में समावेश नहीं किया-गुण का ही प्रायः किया है। दूसरी विशेष बात यह
है कि श्रीपति ने अपने श्रीपति-सरोज में अर्थ-गुणों का अलग वर्णन किया है। हिन्दी में अर्थ और शब्द के आधार पर गुणमेद प्रायः नहीं किये गये। एक चिंतामणि ही अपवाद है । संस्कृत में भी वामन या भोजराज आदि दो एक प्राचार्य को छोड़ किसो ने इस भेद को स्वीकार नहीं किया। इस दृष्टि से श्रीपति का अर्थ-गुण-वर्णन एक उल्लेखनीय विशेषता है। सोमनाथ ने अपने रसपीयूषनिधि में गुण का काव्य-लक्षण में उल्लेख किया है-मम्मट के आधार पर उनका लक्षण इस प्रकार है:
सगुन पदारथ दोष बिनु, पिंगल मत अविरुद्ध ।
भूषणजुत कवि-कर्म जो सो कवित्त कहि बुद्ध ॥ परन्तु इन प्राचार्यों का गुण-लक्षण वामन से थोडा भिन्न है। ये गुण को रस का धर्म मानते हैं जबकि वामन उसे शब्द-अर्थ का ही धर्म मानते हैंफिर भी व्यवहार रूप में दोनों के गुण-वर्णन में बहुत कुछ सादृश्य भी है, इसीलिए गुण का रीति के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध रहा है।
दास दास का गुण-वर्णन रीतिकाल के प्रायः अन्य सभी आचार्यों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान है। उन्होंने इस प्रसंग का वर्णन अधिक मनोयोगपूर्वक और साथ ही स्वतन्त्र रीति से भी किया है।
दस विधि के गुन कहत है, पहिले सुकवि सुजान । पुनि तीनै गुन गनि रचौ, सब तिनके दरम्यान ।। ज्यों सतजन हिय ते नहीं सूरतादि गुन जाय । त्यों विदग्ध हिय में रहें, दस गुन सहज स्वभाय ।
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