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हिन्दी में रीति - सिद्धान्त का विकास
हिन्दी में रीति-सिद्धान्त लोकप्रिय नहीं हुआ । वास्तव में रीतिवाद को हिन्दी साहित्य में कभी मान्यता नहीं मिली । यह एक विषमता ही है कि स्वयं रीतिकाल का ही दृष्टिकोण सिद्धान्त रूप में रीतिवादी नहीं रहा व्यवहार की बात हम नहीं करते । हिन्दी में कोई भी ऐसा कवि श्रथवा श्राचार्य नहीं हुआ जिसने रीति को काव्य की आत्मा माना हो । फिर भी रोति और उसके विभिन्न तत्वों गुण, रचना ( अर्थात् वर्ण-गुम्फ तथा शब्द-गुम्फ या समास ), और अभावात्मक रूप में दोष आदि की उपेक्षा न काव्य में सम्भव है और न काव्यशास्त्र में, अतएव उनके प्रति हिन्दी साहित्य के भिन्न भिन्न युगों में कवियों तथा श्राचार्यों का अपना कोई न कोई निश्चित दृष्टिकोण रहा हो है और उनका यथाप्रसंग विवेचन भी किया गया है । प्रस्तुत निबन्ध में हम उसी की ऐतिहासिक समीक्षा करेंगे ।
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हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल में एक चोर स्वयंभू आदि प्राचीन हिन्दी के कवियों की और दूसरी ओर चन्द आदि पिगल के कवियों की कतिपय काव्य-सिद्धान्त-सम्बन्धी पंक्तियां मिल जाती हैं। उनके आधार पर किसी निश्चित सिद्धान्त की स्थापना करना चाहे कठिन हो, किन्तु समग्र काव्य के अध्ययन के साथ साथ तो उनकी सहायता से उनके रचयिताओं के काव्यगत दृष्टिकोण के विषय में धारणा बनाई ही जा सकती है । उदाहरण के लिए स्वयंभू की निम्नलिखित प्रसिद्ध पंक्तियां लीजिए :
अक्खर वास जलोह मोहर । सुयलंकार -छंद मच्छोहर । दीह समास - पवाहा बंकिय । सक्कय पायय- पुलियालंकिय ।