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भों में यदि पुष्ट अर्थं तथा चक्रोक्ति का प्रभाव, औौर केवल ऋजु
प्रसन्न कोमल शब्दावली मात्र हो तो वह गीत की भाँति केवल श्रुतिपेशल हो सकती है - प्रर्थात् वह हमारे कानों को प्रिय लग सकती है परन्तु उससे हमारी चेतना का परिष्कार नहीं हो सकता है - जो काव्य का चरम उद्देश्य है ।
व्यवहार में इस युग के काव्य- सिद्धान्त रीति- सिद्धान्त के और भी अधिक निकट हैं । सिद्धान्त की दृष्टि से तो इस युग में अर्थ - गौरव तथा भावसौन्दर्य पर ही बल दिया गया परन्तु वास्तविक व्यवहार में इन कवियों का ध्यान मूलतः भाषा-शैली पर ही केन्द्रित रहा । भाषा-शैली को सँवार और सजाकर इन्होंने काव्य-भाषा को एक पृथक रूप ही दे दिया- सिद्धान्त में अर्थ को गौरव देते हुए व्यवहार में इन्होंने शैली या रीति को ही काव्य की श्रात्मा माना | रीतिवाद औौर नव्यशास्त्रवाद में निम्नलिखित समानताएं त्यन्त स्पष्ट हैं :
१. काव्य में भाव (रस) की अपेक्षा रीति का महत्व |
२. काव्य के प्रति वस्तु-परक दृष्टिकोण |
३. काव्य के बाह्य रूप के उत्कर्षकारी तथा उत्कर्षवर्धक तत्वों (गुण तथा अलंकार) का यत्नपूर्वक ग्रहण और अपकर्षकारी तत्वों (दोष) का त्याग |
स्वच्छन्दतावाद
अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक पहुँचते पहुँचते अनेक श्राध्यात्मिक तथा प्राधिभौतिक कारणों से काव्य-दर्शन में भी मौलिक परिवर्तन प्रारम्भ हो गया | कान्ट, फ़िक्टे, रॉलिंग आदि जर्मन दार्शनिकों ने दृष्टि को वस्तु से हटाकर श्रात्माभिमुख कर दिया । कान्ट ने स्पष्ट लिखा - "श्रव तक यह विश्वास रहा है कि हमारा समस्त ज्ञान वस्तु के अनुकूल होना चाहिए परन्तु
व इस बात पर विचार करने का समय श्रा गया है कि क्या मानव उन्नति के लिए (इसके विपरीत) यह धारणा अधिक श्रेयस्कर नहीं है कि वस्तु को हमारे ज्ञान के अनुकूल होना चाहिए ।" इन दार्शनिकों के प्रभाव से काव्य में विवेक और रीति के स्थान पर अन्तप्रेरणा, अन्तरष्टि, अन्तप्रकाश, कल्पना,
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