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अशद्ध शैली और शुद्ध शैली:- मिथ्या वाग्मिता ही अशुद्ध शैली है। उसकी स्थिति एक ऐसे शीशे के समान है जो चारों ओर अपने भड़कीले रंगों को बिखेर देता है जिससे हम पदार्थों के सहज स्वरूप को नहीं देख पाते। सभी में एक जैसी चमक-दमक उत्पन्न हो जाती हैकिसी में कोई भेद नहीं रहता । परन्तु शुद्ध शैली का यह गुण है कि वह सूर्य के प्रकाश के समान प्रत्येक पदार्थ को व्यक्त कर देती है । उसके रूप को भी चमका देती है। वह सभी को स्वर्णिम भामा से दीप्त कर देती है किन्तु किसी के स्वरूप को नहीं बदलती ।
आगे चलकर पोप वर्ण-योजना की चर्चा करते हैं। केवल अतिपेशल वर्ण-गुम्फ अपने आप में स्तुत्य नहीं है केवल संगीत के लिए काव्य का अनु शोलन करना असंगत है। परिवर्तनहीन रणन-ध्वनियों की झंकार एक प्रकार को अरुचिकर एकस्वरता को जन्म देती है। किसी गतिहीन पंक्ति में रेंगते हुए निर्जीव शब्द काव्य का उत्कर्ष नहीं कर सकते । शब्द में अर्थ की गूंज रहनी चाहिए । काव्य के पारखी प्रसन्न अर्जस्विता का ही प्रादर करते है-- जहां भोज और माधुर्य का समन्य रहता है।
पोप के इन विचारों में भारतीय रीति-सिद्धान्त के अनेक तस्व वर्त. मान हैं । पोप ने एक और वस्तु-औचित्य की अत्यन्त निन्ति शब्दों में प्रतिष्ठा की है, दूसरी ओर प्रसाद, ओज और माधुर्य तीनों गुणों के समन्वय पर बल दिया है। उनकी आदर्श शैली वैदी की भाँति ही प्रसादमयी,
ओजस्वी और माधुर्य-संवलित है । "केवल अतिपेशल' के विरुद्ध उनका अभिमत भामह की निम्न-लिखित उक्ति का स्मरण दिलाता है।
अपुष्टार्थमवक्रोक्ति प्रसन्नमूजु कोमलम् । भिन्नगेयमिवेदं तु केवलं श्रुतिपेशलम् ।।
भामह-॥३॥
१ देखिए-'एसे ऑन क्रिटिसिज्म' - २ तुलना कीजिए:
हू हान्ट पारनेसस बैट टू प्लीज दिभर ईभर नाट मेन्ड दिभर माइन्ड्स, -पोष
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