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देसी-भाषा उभय तडुज्ज्ज । कवि-दुक्कर घण-सद्द सिलायल। अथ्थ-बहल कल्लोला णिट्ठिय ।आसा-सय-सम अह परिट्टिय ।
अर्थात् रामकथा-रूपी सरिता में अक्षर ही मनोहर जलौक हैं, सुन्दर अलंकार तथा छन्द मीन हैं, दीर्घ समास बंकिम प्रवाह हैं। संस्कृत-प्राकृत के पुलिन हैं-देशी भाषाएं दो उज्ज्वल तट हैं। कवियों के लिए दुष्कर सधन शब्दों के शिलातल हैं। अर्थ-बहुला कल्लोलें हैं शतशत प्राशनों के समान तरंगे उठती है।
___ उपर्युक पंक्तियों में स्वयंभू ने स्वभावतः उन उपकरणों का उल्लेख किया है जिन्हे वे सरकान्य के लिए आवश्यक समझते हैं : अक्षर-गुम्फ, अलंकार, छन्द, दीर्घ समास, संस्कृत-प्राकृत के शब्द, सधन शब्द-बंध, अर्थबाहुल्य आदि । इनमें से अक्षर-गुम्फ, दीर्घ समास, सधन शब्द-बंध आदि स्पष्टतः रीति के तत्व हैं। महाकाव्य की शैली स्वभाव से ही प्रोज-प्रधान होती है-अतएव उसके लिए गौड़ीया रीति के तत्व प्रायः अनुकूल पड़ते हैं। इस प्रकार स्वयंभू रीति को कान्य का आवश्यक अंग मानते हैं। परन्तु पैसे उनका दृष्टिकोण निस्संदेह रसवादी ही है वे तुलसीदास के साहित्यिक पूर्वज हैं।
चन्द श्रादि कवि भी रसवादी ही थे।-शास्त्रविद् होने के कारण काव्य के शास्त्रीय तत्वों का रीति, गुण, अलंकार, आदि का-उनके काव्य में यथावत् सनिवेश है, परन्तु रीतिवाद से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। विद्यापति में रसवाद अपनी चरम सीमा पर है-परतु उनको अपनी काव्यभाषा पर भी कम अभिमान नहीं था: बालचन्द के समान उनकी भाषा में नागर-मन को मुग्ध करने की अद्भुत शक्ति थी। इसी प्रसंग में उन्होंने काव्यभाषा के विषय में एक बार फिर अपने विचार का संकेत दिया है।
सक्कय वाणी बुहयन भावई, पाउन रस को भम्म न पावई । देसिल बना सव जन मिट्ठा, तें तैसन जम्पओं अवहट्ठा ।
(कीर्तिलता)
संस्कृत केवल विद्वानों को ही रुचिकर हो सकती है, प्राकृत रस का मर्म नहीं पाती । देशी वाणी सभी को मीठी लगती है, इसलिए मैं अवहट्ट भाषा में
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