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निर्देश किया है। यूरिपाइढीज़ सरल और सहज शैली का समर्थक है । वह एक ओर सहज मानवीय भाषा और वाणी को स्वाभाविक स्वतंत्रता का प्रबल पक्षपाती है, दूसरी ओर कृत्रिम गर्जन:-तर्जन तथा शब्दाडम्बर का घोर विरोधी । इसके विपरीत ऐसकाइलस उदात्त शैली को महत्व देता हैवह इस कथित सहजता को निस्सार मानता है। उसकी.मान्यता है कि विषय-वस्तु नथा भाव के गौरव के साथ भाषा भी अनिवार्यतः गौरवसम्पन्न हो जाती है । इस प्रकार यूरोपीय साहित्य-शास्त्र के आदिम काल में ही इन दो परस्पर-विरोधी शैलियों का अन्तर स्पष्ट हो गया था : वहां भी भारतीय वैदर्भी और गौड़ी के समान दो काव्य-रीतियाँ पारम्भ से ही प्रचलित तथा स्वीकृत थीं।
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प्लेटो
व्यंग्य-नाटकों के उपरान्त यवन दार्शनिकों के ग्रंथों में प्रसंगानुसार काव्यालोचन की झाँकियां मिलती हैं। प्लेटो तथा अरस्तू आदि ने शैली को नस्व रूप में प्रायः हेय ही माना है, परन्तु व्यवहार रूप में उन्होंने भी प्रस्तुत विषय पर अत्यन्त महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये है-अरस्तू ने तो रीतिशास्त्र (रहेटरिक) नाम से एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लिखा है। प्लेटो ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्य गणराज्य (रिपटिलक) में काव्यभाषा (शैली) का विवेचन इस प्रकार किया है : 'काव्य-भापा (शैली) के ये दो भेद हैं। + + + इनमे से पहली में कोई बड़ा उतार-चढाव नहीं होता । भाषा के अनुकूल संगीत तथा लय का माध्यम प्राप्त हो जाने पर वह समगति से चलती रहती है।
तो फिर दूसरी का क्या स्वरूप है ? क्या उसे सर्वथा विपरीत माध्यम की अपेक्षा नहीं होती ? सभी राग और सभी लये उसके लिए अपेक्षित होती है क्यो कि उसमें अत्यधिक परिवर्तन होते रहते हैं+ + +
१ Oh let us atleast use the language of men I (यरिपाइडीज) ? Next I taught all the town to talk with freedom ("'). ? I never crashed and lightened. ("') ४ When the subject is great and the sentiment, then, of necessity, great grows the word (एसकाइलस)
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