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पाश्चात्य काव्यशास्त्र में रीति
भारतीय काव्यशास्त्र तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र में विचित्र साम्य है और यह साम्य केवल मूल सिद्धान्तों में ही नहीं है, रूप-भेदों में भी है । भारतीय रीति और पाश्चात्य शैली-विवेचन की पारस्परिक समानता तो वास्तव में आश्चर्यजनक है । यूरोप में शैली का प्रारम्भिक विवेचन और विकास बहुन कुछ उसी पद्धति पर हुआ है जिस पर भारतीय रीति काअथवा कालक्रमानुसार यह कहना संगत होगा कि भारतीय रीति-निरूपण प्रायः उसी पद्धति पर हुआ है जिस पर यूरोप में यूनानी और रोमी प्राचार्यों का शैली-विवेचन, क्योंकि यूनानी तथा कतिपय रोमी प्राचार्य भारत के कान्याचार्यों के पूर्ववर्ती हैं इसमें सदेह नहीं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह साम्य पारस्परिक सम्पर्क अथवा प्रभाव का घोतक नहीं है-मानव-चिंतन की मूलभूत एकता का घोतक यह साम्य बहुत कुछ आकस्मिक ही था।
यूरोपीग अालोचना के उदय-युग के तोन चरण हैं :
१. यूनानी व्यग्य नाटकों में प्राप्त सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक पालोचना-इस दृष्टि से ऐरिस्टोफेनीस का नाटक 'फ्राग्स' अत्यन्त महत्वपूर्ण है। २. यूनानी दार्शनिकों का सौन्दर्य-विवेचन । २. यूनानी-रोमी रीतिशास्त्रियों का रीति-विवेचन ।
एरिस्टोफ़नीस ने फ्रान्स' नामक व्यंग्य-नाटक में अपने युग के नाव्यकारों तथा उनकी शैली आदि का अत्यन्त सूचम विश्लेषण किया है। उन्होंने यूरिपाइडीज़ और ऐसकाइलस नामक प्रसिद्ध नाट्यकारों के विवाद द्वारा अपने युग में प्रचलित दो विरोधी काव्य-शैलियों का अत्यन्त स्पष्ट