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________________ यहां एक प्रश्न उठ सकता है मेरे मन में भी उठा है। वैदर्भी और गौड़ी ही असं क्यों नहीं है-क्या पांचाली की कल्पना भी अनावश्यक नहीं है ? इसका उत्तर यह है कि पैदर्भी में पांचाली का यदि अंतर्भाव मान लिया जाता है तो फिर गौड़ी भी उसकी परिधि से बाहर नहीं पडती क्यों कि समग्रगुणसम्पदा से अलंकृत वैदर्भी में जिस प्रकार माधुर्य और सौकुमार्य का समावेश रहता है, उसी प्रकार ओज और कांति का भी । अतएव वैदर्भी गौडी को विपरीत रोति नहीं --गौडी की विपरीत रोति पांचाली ही है। जिस प्रकार मानव-रवभाव के दो छोर है नारीत्व और पुरुषत्व, इसी प्रकार अभिव्यंजना के भी दो छोर हैं स्त्रीण पांचाली और परुषा गोडी । नारीत्व की अभिव्यंजक पांचाली, और पुरुषत्व की अभिव्यंजक गोटी-इनके अतिरिक्त इन दोनों के समन्वय से समृद्ध व्यक्तित्व की माध्यम चैदी। बस प्रकार चामन ने पांचाली की उद्भावना द्वारा वास्तव में एक प्रभाव अथवा असंगति का ही निराकरण किया है, अनावश्यक नवीनता का प्रदर्शन नहीं। मम्मट के आधार पर भी यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो भी रीतियों या वृत्तियों की संख्या तीन ही ठीक बैठती है : माधुर्यगुण-विशिष्ट उपनागरिका और प्रोजोमयी परुषा क्रमश: द्रवणशील मधुर स्वभाव और दीप्तिमय ओजस्वी स्वभाव की प्रतीक हैं। मधुर और ओजस्वी के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार का भी स्वभाव होता है जिसमें न माधुर्य का अतिरेक होता है और न अोज का वरन् इन दोनों का संतुलन रहता है। इसको सामान्य (नार्मल) या स्वस्थ-प्रसन्न (विशद ) स्वभाव कह सकते है। मानव-स्वभाव का यह भेद भी इतना ही स्पष्ट है जितने कि मधुर और • ओजस्वी । अतएव इसकी अभिव्यंजक कोमला रीति या वृत्ति का अस्तित्व भी मानना उचित ही है। (६६)
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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