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________________ के अनुसार माधुर्य श्रादि गुण चित्त को द्रुति आदि अवस्थाओं से सर्वथा अभिन्न हैं और चूंकि ये अवस्थाए रसानुभूति के कारण ही उत्पन्न होती है, अतएव रस को कारण और गुण को उसका कार्य कहा जा सकता है । कारण और कार्य में अन्तर होना अनिवार्य है, इसलिए रस और चित्त-द्र ति आदि के अनुभव में भी अन्तर अवश्य मानना होगा कम-से-कम काल-क्रम का अन्तर तो है ही। परन्तु चूकि रस की पूर्ण स्थिति में दूसरे अनुभव के लिए स्थान नहीं रहता, अतएव चित्तद्रुति आदि का भी सहृदय को पृथक अनुभव नहीं रह पाता। वह रस के अनुभव में ही निमग्न हो जाता है । आनन्दवर्धन ने गुणों को रस के नित्य धर्म इसी दृष्टि से माना है। अभिनव के उपरांत माधुर्य श्रादि गुणों को मम्मट ने रस के उत्कर्षवर्द्धक एवं अचल-स्थिति धर्म माना और उन्हें चित्त-द्रुति आदि का कारण माना । अभिनव ने रस को गुण का कारण माना था और गुण को चित्त-ब्रुति आदि से अभिन्न स्वीकार किया था। मम्मट गुण को चित्त-द्रुति आदि का कारण मानते हैं । गुण का स्वरूप क्या है इस विषय में मम्मट ने कुछ प्रकाश नहीं डाला । मम्मट का प्रतिवाद विश्वनाथ ने किया। उन्होंने फिर अभिनव के मत की हो प्रतिष्ठा की । अर्थात् चित्त के द्रति दीप्तत्व-रूप आनन्द को ही गुण माना। परन्तु उनका मत था कि 'द्रवीभाव या द्रति आस्वाद-स्वरूप आहाद से अभिन्न होने के कारण कार्य नहीं है, जैसा कि अभिनव ने किसी अश तक माना है। आस्वाद या श्राह्लाद रस के पर्याय हैं। द्रति रस का ही स्वरूप है, उससे भिन्न नहीं है। इस तरह विश्वनाथ ने एक प्रकार से गुण को रस से ही अमिन्न मान लिया है। इन मान्यताओं को पण्डितराज जगनाथ ने चुनौती दी। सबसे पहले उन्होंने अभिनव गुप्त के तर्फ का प्रतिवाद किया। अभिनव गुप्त के अनुसार एक ओर तो गुण रस के धर्म हैं और दूसरो ओर द्रुति आदि के तद्प होने के कारण रस के कार्य हैं-अतएव वे रस के धर्म और कार्य दोनो ही हैं। पडितराज की तार्किक बुद्धि ने इस मन्तव्य को प्रसिद्ध धाषित किया क्यो कि धर्म और कार्य को स्थिति अभिन्न नहीं होती . उष्णता अनल का धर्म है, दाह कार्य है-उष्णता की स्थिति दाह के बिना भी सिद्ध है अतएव दोनो को अभिन्न नही माना जा सकता । ऐसी दशा में गुण रस का धर्म और कार्य कैसे हो सकता है ? विश्वनाथ की स्थापना तो और भी असंगत है—यदि गुण रस से अभिन्न (६५)
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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