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मम्मट, विश्वनाथ तथा जगन्नाथ ने उसे स्पष्ट शब्दों में चित्तवृत्ति रूप माना है : वर्णादि व्यंजक रूप में उसके श्राधार हैं। -जगन्नाथ ने, इससे भी अधिक, उन्हें प्रयोजन रूप माना है । रस-ध्वनिवादियों के अनुसार माधुर्याटि गुण द्रुति आदि चित्तवृत्तियों के तन्द्र प ही है-उनका वास्तविक आधार रस ही है, परन्तु व्यंजक रूप में वर्ण-गुम्फ, समास तथा रचना प्रादि भी गुण के आधार है। जैसा कि मैंने अभी स्पष्ट किया है गुण रस और शब्दार्थ दोनों का ही धर्म है : रस का धर्म होने के नाते वह चित्तवृत्ति रूप है और शब्दार्थ का धर्म होने के नाते उसे वर्णगुम्फ और शब्द-गुम्फ पर आश्रित भी मानना पढ़ेगा : गुण के स्वरूप निरुपण में वर्ण, समास आदि का अनिवार्य आधार इसका प्रमाण है । अतएव गुण अपने सूचम-रूप में चित्तवृत्ति रूप है और स्थूल अथवा मूर्तरूप में वर्ण-गुम्फ तथा शब्द-घटना रूप हैं, द्रति, दीप्ति व्यापकत्व नामक चित्तवृत्ति उसका प्रांतर आधारतत्व हे तथा वर्ण-गुम्फ और शब्द-गुम्फ
बाह्य।
गुण की मनोवैज्ञानिक स्थिति
उपर्यत व्याख्या से गुण का लक्षण तो निर्धारित हो जाता है, परन्तु उसके वास्तविक स्वरूप का उद्घान पूर्णतः नहीं होता। उसके लिए गुण की मनोवैज्ञानिक स्थिति का स्पष्टीकरण आवश्यक है। आनन्दवर्धन ने तो केवल यही कहा है कि शृङ्गार, रौद्र आदि रसों में, जहां चित्त श्राह्लादित और दीप्त होता है, माधुर्य, भोज आदि गुण वसते हैं, परन्तु श्राह्वादन (इति) और दीप्ति से गुणों का क्या सम्बन्ध है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया । क्या माधुर्य और चित्त की दुति अथवा ओज और चित्त की दीप्ति परस्पर अमिन्न हैं अथवा उनमें कारण-कार्य सम्बन्ध है ? इस समस्या को अभिनव ने सुलझाया है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि गुण चित्त की अवस्था का ही नाम है। माधुर्य चित्त को द्रवित अवस्था है, प्रोज दीप्ति है और प्रसाद व्यापकत्व है । चित्त की यह दति, दीप्ति अथवा व्याप्ति रस-परिपाक के साथ ही घटित होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि शृङ्गार रस की अनुभूति से चित्त में जो एक प्रकार की आता का संचार होता है वही माधुर्य है, वीर रस के अनुभव से उसमें जो एक प्रकार की दीप्ति उत्पन्न होती है वही भोज है, और सभी रसों के अनुभव से चित्त में जो एक व्यापकत्व पाता है वही प्रसाद है। इस प्रकार अभिनव
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