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होन नहीं रही-जगनाथ ने तो स्पष्ट ही गुणों को शब्दार्थ के (कम से कम शब्दार्थ के भी) धर्म माना । मम्मट और विश्वनाथ ने भी माधुर्य तथा प्रोज आदि का वर्णों से स्पष्ट सम्बन्ध माना है-व्यंग्य-ज्याक सम्बन्ध भी एक प्रकार का घनिष्ठ सम्बन्ध है । माधुर्यादि के स्वरूप-निर्धारण में वर्ण-गुम्फ तथा शब्द-गुम्फ का आधार सदा ही निश्चय-पूर्वक ग्रहण किया गया है। श्रतएव मूलतः रस के साथ सम्बद्ध होते हुए भी गुण शब्दार्थ से सर्वथा असम्बद्ध नहीं है : उन्हें रस के धर्म तो मानना ही चाहिए, परन्तु साथ ही शब्दार्थ के धर्म मानने में भी आपत्ति नहीं करनी चाहिए। शौर्यादि को उपमा भी इस मन्तव्य को पुष्ट ही करती है क्योंकि इसमें सदेह नहीं कि वे मूलतः आत्मा के अन्तरंग व्यक्तित्व के धर्म हैं-परन्तु बाह्य व्यक्तित्व से उनका कोई सम्बन्ध ही न हो यह भी नहीं माना जा सकता । मधुर व्यक्तित्व अथवा ओजस्वी व्यक्तित्व के लिए श्रात्मा के हो माधुर्य अथवा भोज को अपेक्षा नहीं होती आकृति के माधुर्य और तेज की भी आवश्यकता रहती है केवल औपचारिक कह कर उसको टाल देना पर्याप्त नहीं है।
अतः गुण उन तत्वों को कहते हैं जो विशेषरूप से प्राणभूत रस के और समान्य रूप से शरार-भूत शब्दार्थ के श्राश्रय से कान्य का उत्कर्ष करते हैं।
अथवा
गुण काव्य के उन उत्कर्ष-साधक तत्वों को कहते हैं जो मुख्य रूप से रस के और गौण रूप से शब्दार्थ के नित्य धर्म हैं।
गुण के आधार-तत्व
दण्डी और वामन आदि पूर्व-ध्वनि श्राचार्यों ने गुण को शब्द और अर्थ का धर्म माना है। उनके गुण-विवेचन से स्पष्ट है कि शब्द और अर्थ के चमत्कार (वर्ण-गुम्फ, शब्द-गुम्फ आदि शब्द-चमत्कार और उधर अग्राम्यस्व, अपारुष्य, रस आदि अनेक प्रकार के अर्थ-चमत्कार) गुण के आधार-तत्व हैं। इनके उपरान्त जब ध्वनिकार ने और उनके अनुयाइयों ने गुण को रसधर्म मान लिया तो स्वभावतः ही उसका स्वरूप सूचमतर हो गया : वह शब्दचमत्कार या अर्थ-चमत्कार न रह कर 'चित्त-वृत्ति' माना गया। अभिनव,
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