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ये रसस्यांगिनो धर्मा शौर्यादय इवात्मनः उत्कर्षहेतवः ते स्युः अचलस्थितयो गुणाः ॥
__(काव्यप्रकाश) आत्मा के शौर्यादि (गुणों) की भांति अंगीभूत रस के उत्कर्षकारी अचलस्थिति धर्म गुण कहलाते हैं । अर्थात्
(१) गुण रस के धर्म हैं। (२) वे अचलस्थिति अथवा नित्य हैं। (३) वे रस का उत्कर्ष करते हैं।
विश्वनाथ आदि परवर्ती आचार्यों ने प्रायः इसी लक्षण को प्रकारान्तर से दुहराया है। केवल पण्डितराज जगन्नाथ ने गुण को रसधर्म मात्र मानने में आपत्ति की है। उनका तर्क है कि काव्य का आत्मन् होने के कारण रस तो गुणशून्य हुआ-उसका धर्म अथवा गुण फैसा ? (परमात्मा गुणशून्य एवेति मायावादिनो मन्यन्ते ।) अतएव गुण शब्दार्थ का धर्म है। परन्तु आगे चलकर उनके विवेचन में शब्द-अर्थ के साथ साथ रस को भी गुण का आधार माना गया है जिससे गुण का रसधर्मस्व फिर स्थापित हो जाता है। और वास्तव में अन्ततोगत्वा पण्डितराज ने इसका निषेध नहीं किया। ध्वनि की मान्यता स्वीकार कर लेने पर वह सम्भव भी नहीं था।"
निष्कर्ष यह है कि गुण काव्य के उत्कर्ष-साधक तत्व हैं इस विषय में सबकी पूर्ण सहमति है। परन्तु वामन आदि पूर्व-ध्वनि काल के प्राचार्यों ने उन्हें शब्दार्थ के धर्म माना है जिनको सत्ता स्वतन्त्र है-रस कान्ति का अंग होने के नाते गुण का अंग है, गुण रस के आश्रित अथवा रस के धर्म नहीं है । अर्थात् वे शब्दार्थ रूप काव्य का साक्षात् उपकार करते हैं-रस के
आश्रय से नहीं । इसके विपरीत उत्तरध्वनि काल के प्राचार्य उन्हें प्राण रूप रस के धर्म मानते हैं—शरीर-रूप शब्दार्थ के नहीं।-वे रस के श्राश्रय से ही काव्य की उत्कर्ष-साधना करते हैं। आगे चलकर गुण की यही परिभाषा सर्वमान्य हो गई और मम्मट ने उत्तर-ध्वनि काल के प्राचार्यों की गुण-विषयक धारणाओं को पारिभाषिक शब्दों में बांध दिया। गुणो का साक्षात् सम्बन्ध रस से ही स्थापित हो गया-शब्दार्थ के साथ उसका सम्बन्ध केवल औपचारिफ ही माना गया । परन्तु इस विषय में स्थिति सर्वथा निर्धान्त और संशय
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