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होती है । इसलिए विपर्यय का अर्थ वैपरीत्य ही मानना संगत है—भरत ने दोषों का विवेचन पहले किया है अतएव उसी क्रम में दोषों के सम्बन्ध सेउनके विपर्यय रुप में—उन्होंने गुणों का भी विवेचन किया है । और, जैसा कि जैकोबी ने समाधान किया है, यह क्रम सामान्य व्यवहार-दृष्टि से रखा गया है जिसके अनुसार मनुष्य के दोष अधिक स्पष्ट रहते हैं— और गुणों की कल्पना हम प्रायः उन सहज ग्राह्य दोषों के निषेध ( प्रभाव अथवा विपर्यय) रूप में ही करते है ।
तएव हमारा निष्कर्ष यह है कि भरत ने गुण को दोष का वैपरीत्य हो माना है, परन्तु, (जैसा कि भिन्न मत रखते हुए भी एक स्थान पर डा० लाहिरी ने संकेत किया है) निर्दिष्ट दश गुण पूर्व-विवेचित दश दोषों के ही क्रमशः विपरीत रूप नहीं हैं : यह तो उनके नामकरण से हो स्पष्ट है । अर्थात् यह वैपरीत्य सामान्य है, विशिष्ट नहीं है ।
इसके अतिरिक्त भरत के अनुसार लक्षण ( काव्य-बन्ध ) तथा अलंकार की भाँति गुण की भी सार्थकता यही है कि वह वाचिक अभिनय को प्रभावशाली बनाता है । नाटक में जो वाचिक अभिनय है काव्य में वही काव्य भाषा या शैली है, इस प्रकार काव्य के प्रसंग में गुण का कार्य है काव्य-शैली को समृद्ध करना - प्रभावशाली बनाना ।
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भरत ने नाटक का और उपचार से काव्य का मूल तत्व रस माना - वाचिकाभिनय रस का साधन है अतएव रस के अधीनस्थ है, और उपर्युक्त गुण आदि तत्व भी जो वाचिकाभिनय के चमत्कार के अंग है, परम्परा-सम्बन्ध से रस के अधीनस्थ हैं ।
उपर्युक्त विवेचन के सार रूप हम भरत के अनुसार गुण का लक्षण इस प्रकार कर सकते हैं :
दोषों के विपर्यय (वैपरीत्य) रूप गुण काव्य- शैली को समृद्ध करने वाले तत्व हैं जो परम्परा -सम्बन्ध से रस के प्राश्रित रहते हैं ।
दण्डी :- दगडी ने भा दशगुणों का विवेचन तो विस्तार से किया है, किन्तु गुण का सामान्य लक्षण नहीं किया । तथापि उनके दो श्लोक ऐसे हैं जिनसे यह निष्कर्ष निकालने में कठिनाई नहीं होती कि गुण के स्वरूप के विषय में उनकी धारणा क्या थी ।
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