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गुण-विवेचन
गुण की परिभापा : वामन से पूर्व भरत और दण्डी ने दश गुणों का सांगोपांग वर्णन तो किया है, परन्तु परिभाषा नहीं की। भरत :-भरत ने गुणों को भावात्मक तत्व न मान कर अभावारमकअर्थात् दोषों का विपर्यय माना है : गुण विपर्ययाद् ऐषाम् माधुयौदार्यलक्षणाः । (नाट्यशास्त्र, काव्यमाला १६६१)-अथवा एत एव विपर्यस्ता गुणाः काव्येषु कीर्तिताः । (नाट्यशास्त्र-चौखम्बा~११९१०)। विपर्यय का वास्तविक अर्थ क्या है इस विषय में प्राचार्यों में मतभेद रहा है। इस शब्द के तीन अर्थ किये गये हैं : प्रभाव, अन्यथा भाव और वैपरीत्य । अभिनवगुप्त ने विधात या प्रभाव को ही ग्रहण किया है। उनके अनुसार भरत का मत है कि दोष का अभाव गुण है। उत्तरध्वनि काल के प्राचार्यों ने भी दोष के प्रभाव को गुण (सद्गुण) माना है : महान् निर्दोषता गुणः । परन्तु फिर भी भरत के गुण-विवेचन से यह सिद्ध नहीं होता कि उनके सभी गुणों की स्थिति अभावास्मक है । उनके लक्षणों से स्पष्ट है कि कुछ गुणों को छोडकर शेष सभी की स्थिति निश्चय ही भावात्मक है। उदाहरण के लिए समता की स्थिति अवश्य ही अभावात्मक है, परन्तु उदारता, सौकुमार्य, प्रोजस् आदि गुण जिनमें दिव्यभाव, सुकुमार अर्थ, और शब्दार्थ-सम्पत्ति आदि का निश्चित रूप से सद्भाव रहता है अभावात्मक कैसे हो सकते हैं । अन्यथाभाव और चैपरीस्य की स्थिति विलोम रूप से भावात्मक हो जाती है-धन का सद्भाव भावात्मक स्थिति है, धन का प्रभाव प्रभावात्मक है, परन्तु ऋण का सद्भाव पुनः भाषास्मक स्थिति है क्योंकि ऋण के अभाव-रूप में उसकी अभावात्मक स्थिति भी