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व्युत्पत्ति अर्थ में भी वैयक्तिक तत्व मूलतः वर्तमान है। परन्तु फिर भी भारतीय काव्यशास्त्र में इसका प्रयोग प्रस्तुत अर्थ मे प्राय. नहीं हुआ । शास्त्र में यह शब्द व्याख्यान-पद्धति श्रादि के प्रसंग में ही प्रयुक्त हुआ है: यथा'प्रायेण आचार्याणामियं शैली यत् सामान्येनाभिधाय विशेषेण विवृणोति । (कुल्लूक भट्ट की टोका-मनुस्मृति : बल्देव उपाध्याय-भारतीय सा. शा० से उद्धृत)। अभिव्यक्ति की पद्धति के अर्थ में शैली का प्रयोग आधुनिक ही है जो अंगरेज़ी के स्टाइल शब्द का पर्याय है।
विशिष्ट अर्थ में रीति और शैली में बहुत अंतर नहीं है। शैली की अनेक परिभाषाएं की गई हैं। शैली विचारों का परिधान है। शैली उपयुक्त शब्दावली का प्रयोग है। अभिव्यक्ति की रीति का नाम शैली है । शैली भाषा का व्यक्तिगत प्रयोग है । शैली ही व्यक्ति है, इत्यादि।
शैली के दो मूलतत्व हैं : एक व्यक्ति-तत्व, और दूसरा वस्तु तत्व ।
यूरोप के काव्य-शास्त्र में इन दोनों तत्वों का विस्तृत विवेचन किया गया है। यूनानी प्राचार्यों के उपरांत रोम के, और उनके उपरांत फ्रांस, इगलैंड आदि के अनेक काव्य-शास्त्रियों ने शैली के वस्तु-तत्व का सम्यक विवेचन किया है । अब रह जाता है शैली का वैयक्तिक तत्व । वास्तव में शैली के व्यक्ति-तत्व और वस्तु-तत्व में व्यक्ति-तत्व ही प्रधान है। उसी के द्वारा शैलीकार शैली के बाह्य उपकरणों का समन्वय-अनेकता में एकता की स्थापना करता है । वैयक्तिक तत्व के दो रूप हैं: एक तो शैली द्वारा कवि की आत्माभिव्यजना-अर्थात् शैलो का आत्माभिव्यंजक रूप और दूसरा पात्र तथा परिस्थिति के साथ शैली का सामंजस्य । भारतीय रीति-विवेचन में पहला रूप विरल है। परन्तु इस प्रसग में एक बात याद रखनी चाहिए : इसमें संदेह नहीं कि उसे वाछित महत्व नहीं दिया गया फिर भी उसको स्वीकृति का सर्वथा प्रभाव नहीं है। दण्डी ने काव्य-मार्ग को प्रतिकविस्थित माना है और कुन्तक ने तो कविस्वभाव को ही शैली का मूल आधार माना है । उनके उपरान्त शारदातनय आदि ने भी पुसि पुसि विशेषेण कापि कापि सरस्वती' कह कर व्यक्तिनत्व को स्वीकृति दी है। वैयक्तिक तत्व के दूसरे रूप का विधान तो भारतीय
यशास्त्र में निश्चय ही मिलता है। यद्यपि वामन ने इसका स्पष्टीकरण नहीं ा किन्तु वामन से पूर्व भरत ने स्पष्ट निर्णय दिया है कि नाटक में भाषा
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