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पात्र के शील-स्वभाव की अनुवर्तिनी होनी चाहिए। उधर श्रानन्दवर्धन ने तो वक्ता, वाच्य और विषय के औचित्य को रीतियों का नियामक ही माना है।
अब प्रश्न यह है कि क्या शैली और रीति पर्याय शब्द हैं । अथवा उनमें अन्तर है । डा. सुशीलकुमार डे ने उनको एक मानने के विरुद्ध चेतावनी दी है। उनका कहना है कि रीति में व्यक्ति-तत्व का अभाव है, और व्यक्तितत्त्व शैली का मूल श्राधार है अतएव दोनों को एक मानना भ्रान्ति है। हिन्दी के विद्वानों ने भी उनके आधार पर इन दोनों का भेद स्वीकार किया है। जहां तक शैली के वस्तु-रूप का सम्बन्ध है, वहां तक तो रोति से उसका पार्थक्य करना अनावश्यक है । जैसा मैंने रीतिकाव्य की भूमिका में स्पष्ट किया है, यूरोप के प्राचार्यों द्वारा निर्दिष्ट शैली के तत्त्व नामान्तर से रीति के तत्वों में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं-अथवा रीति के तत्वों का उपयुक्त शैलीतत्वों में अन्तर्भाव हो जाता है। लय, स्वर-लालित्य आदि कला तत्व वर्णगुम्फ और शब्द-गुम्फ के अन्तर्गत आ जाते हैं, बौद्धिक तत्वों का समावेश अर्थव्यक्ति प्रसादादि गुणों और कतिपय अर्थालङ्कारों के अन्तर्गत हो जाता है, और रागात्मक तत्व रस (कान्ति-गुण) माधुर्य और भोज गुणों में अन्तर्भूत हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में वरतु-तत्त्व शैली और रीति दोनों के सर्वथा समान हैं केवल नाम-भेद है। व्यक्ति-तत्व के सम्बन्ध में भी दोनों में इतना भेद नहीं है जितना कि डा० डे ने माना है : रीति पर व्यक्तित्व का प्रभाव दण्डी
आदि प्राचीन आचार्यों तथा कुन्तक, शारदातनय आदि नवीन प्राचार्यों ने मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है । कुन्तक का विवेचन तो सर्वथा आधुनिक ही प्रतीत होता है- तो यूरोप के रोमांटिक पालोचकों की भाँति ही स्वभाव पर बल देते हैं। यूरोप में भी पुनर्जागरण काल और विशेषरूप से रोमांटिक युग के बाद ही व्यक्तित्व को यह उभार मिला है। यूनान और रोम के बाद में इटली और फ्रांस के आलोचकों ने तो प्रायः शैली के वस्तुतत्त्व पर ही बल दिया है।
उपर्युक्त विवेचन के परिणाम इस प्रकार हैं:
(१) रीति और शैली का वस्तु-रूप एक ही है। प्रारम्भ में भारत और यूरोप दोनों के काव्य शास्त्रों मे प्रायः वस्तु-रूप का ही विवेचन हुआ है।
(२) भारतीय रीति में व्यक्ति-तत्व की सर्वथा अस्वीकृति नहीं है, जैसा कि डा. हे श्रादि ने माना है।
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