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(२) मम्मट और उनके परवर्षी श्राचार्य पण्डितराज जगन्नाथ आदि वृत्ति और रोति को एक ही मानते हैं। मम्मट ने तो उपनागरिका श्रादि वृत्तियों का विवेचन करने के उपरान्त स्पष्ट ही लिख दिया है कि इन्हें ही वेदी आदि रीतियों के नाम से अभिहित किया जाता है। जगन्नाथ ने रीति और वृत्ति दोनों शब्दो का ही बंदी आदि के लिए प्रयोग किया है।
(8) कुछ प्राचार्य वृत्ति को रीति का अंग मानत हैं : वृत्ति से उनका तात्पर्य वर्ण-गुरफ का है और वर्ण-गुम्फ रीति के अनेक तत्वो में से एक है-श्रतएव वह उसका अग है । वामन ने वृत्ति का कैशिकी श्रादि के अर्थ में ही उल्लेख किया है, अनुप्रास जाति के अर्थ मे वृत्ति का प्रयोग उद्भट का
आविष्कार है जिसे चामन ने ग्रहण नहीं किया । परन्तु उनके रीति-विवेचन से स्पष्ट है कि अनुप्रासजाति को वे रीति का एक बाह्य आधार-तत्व मानते हैं। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से वे वृत्ति को रोति का अग मानते हैं। विश्वनाथ ने रीति के तीन तत्व माने हैं : रचना (शब्द-गुम्फ), समास, तथा वर्णसंयोजना । अतएव उनके मत मे भी वर्ण-संयोजना रूप वृत्ति सम्भवतः ही रीति का अंग है।
उपर्युक्त अभिमतों के परीक्षण के उपरांत यह परिणाम निकलता है कि यदि उद्भट का मत मान्य है और तदनुसार वृत्ति केवल वर्ण-गुम्फ का नाम है तब तो वह रोति का एक वाह्य अाधार तत्व है, परन्तु यदि आनन्दवर्धन के अनुसार उसे शब्द-व्यवहार माना जाए तो फिर वह रीति का पर्याय मात्र है . उत्तर-ध्वनि काल के प्राचार्यों का यही मत रहा है। हमारा अपना विनम्र मंतव्य यह है कि वृत्ति शब्द की इस अर्थ में उद्भावना और उसका अंत तक प्रयोग उसके पृथक अस्तित्व के प्रमाण हैं । वह वर्ण-व्यवहार-आधुनिक शब्दावली में वर्ण-संयोजना-रूप है, और रीति का एक बाह्य अग है। रीति के दो बाह्य तत्व हैं : (१) संघटना (शब्द-योजना, समास श्रादि) और (२) वर्ण-योजना जिसका दूसरा नाम है वृत्ति ।
रीति और शैली : रीति का समानधर्मी अब केवल एक शब्द रह जाता है : शैली । वैसे तो यह शब्द अत्यंत प्राचीन है और इसकी व्युत्पत्ति शील से हुई है। शाल का अर्थ है स्वभाव जो कुन्तक के मत में रीति का नियामक प्राधार है। जिस प्रकार स्वभाव की अभिव्यक्ति का मार्ग रोति है, उसी प्रकार शील (स्वभाव) की अभिव्यक्ति-पद्धति शैली भी है और उसके
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